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सिंह नहीं करते है । अन्य प्राणी बकरी को अकेली समझकर शिकार करने नजदीक आते हैं परंतु उसे सिंह की आश्रित समझकर छोड देते थे। सुबह प्रभात होते ही सिंह उठकर बाहर निकलने लगता है। बकरी को देखकर सोचा इसकी इतनी हिंमत कैसे हुई कि मेरी आज्ञा के बिना मेरे क्षेत्र सीमा में आ गई। बाहर आकर उसके सामने खडे होकर कहने लगा, ओ बकरीबाई ! उसे देखकर भयभीत हुई बकरी खडी हो गई और कहने लगी, महाराज! मुझे माफ कर दो। कल शाम को मैं मेरे समुदाय से बिछड चुकी थी। अपनी सुरक्षा हेतु कल रात मैंने आपके निवास के पास विश्राम लिया। अब आपको जो सजा देनी है वह दे दो। आपकी शरणागत ऐसी मैं किसी अन्य प्राणी का शिकार नहीं बन सकती हूँ। कल रात जब कोई भी प्राणी मुझपर आक्रमण करना चाहता था तब मैं उनसे यही कहती थी ठहरो जरा मेरे स्वामी सिंहराज अंदर हैं यदि आप मुझे कुछ करोगे तो मेरे स्वामी आपपर आक्रमण करेंगे। जहाँपनाह! मुझे पता है कि मैं जंगल में भटक गई हूँ इसलिए मुझे भय है। संसार का नियम है कि जब भी कोई डरता
तब वह राजा के आश्रित हो जाता है। राजा उसके आश्रित अर्थात् शरणागत की सुरक्षा करता है । आप मेरी रक्षा करो। सिंह ने सोचा आश्रित और शरणागत बनकर आयी हुई बकरी का शिकार मेरी वीरता को शोभा नहीं देता । शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है।
एक सिंह की शरण में आयी हुई बकरी यदि सुरक्षित हो सकती हैं तो नमोत्थुणं द्वारा परमपुरुष सिंहत्त्व से संयुक्त परमसत्त्व संपन्न परमात्मा को पुरिससीहाणं पद द्वारा चरणों में नमस्कार कर शरण का स्वीकार करनेवाले हम कितने सुरक्षित हो सकते हैं। आश्रित होने में हमारा विश्वास कितना प्रबल है। सिंह शरण्य हैं । परमात्मा तो उससे कई ज्यादा अधिक परम विशेष शरण्य हैं। बकरी को जितना सिंहमें विश्वास है उससे कई अधिक हमें परमात्मा में विश्वास होना चाहिए।
पुरिससीहांण पद को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने गुण और लक्षण ऐसे दो प्रकार बताए हैं। उपमा, उपमान और उपमेय तीनों को समझने के लिए ये दोनों प्रकार की अवधारणा उपयुक्त हैं। गुण और लक्षण में अंतर स्पष्ट हैं। लक्षण पहचान है। जैसे की हमनें सिंह में दस लक्षण देखें। यह लक्ष जातिगत सिंह में पाए जाते हैं पर इन लक्षणों में गुण है वे गुण सिंह में नहीं पाए जाते हैं। जैसे शूरता, सिंह में दुश्मन के शिकार के लक्षण रुप में पाया जाया है जब की परमात्मा में यह लक्षण गुण स्वरुप हैं। कर्म और कषाय के अवसर में परमात्मा पूर्ण शूरत्त्व के साथ उसका सामना करते हैं। यहीं लक्षण अन्य की सुरक्षा के समय परमलक्षण महालक्षण बन जाता है। जैसे उत्तरवाचाल में जनसमुदाय के रोकनेपर भी परमात्मा महावीर चंडकौशिक के वन में पधार गए। शूरत्त्व का प्रदर्शन करने के लिए नहीं पधारे थे परंतु जीवों की वृति का परिवर्तन वे खामोशी पूर्वक करते थे । शूरवीरता का सामान्य · प्राणी में प्रदर्शित होना लक्षण है और वही शुरवीरता जब ज्ञानी पुरुष में परिणमित होती है तब वह ज्ञानी पुरुष का गुण बन जाती है। इसी कारण गणधर भगवंतो ने तीर्थंकर महापुरुषों को सिंह की उपमा दी है। सिंह जिसतरह वन मे अकेला घूमता है । उसी तरह महाप्रभु भी साधना काल में अकेले विचरण करते है। परमात्मा महावीर ने अकेले ही दीक्षा ली थी और अकेले ही साढे बारह वर्षतक विचरण करते रहे। शक्रेन्द्र महाराज की साथ रहने की बिनती का भी
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