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है। पद्मप्रभु का लांछन (चरणचिन्ह) लालकमल है और इक्कीसवें नेमनाथप्रभु का लांछन (चरणचिन्ह) निलकमल है।
पुर अर्थात् नगर। इस देह रुपी नगर में जो स अर्थात् सत् प्रगट करता है वह पुरुष है। जो हमारे देहरुपी नगर में रही हुयी सुप्त चेतना को प्रगट करता है वह उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तमाणं है। जो जिनवाणी रुप सिंहनाद से सुषुप्त चेतना को जगाते है । जगत को जागरण का संदेश देते है। ऐसा सिंहत्त्व जिन में है वे पुरिससिहाणं है। वर अर्थात् श्रेष्ठ। लोगस्स सूत्र में वर के बाद उत्तम शब्द है। यहाँ उत्तम के बाद वर शब्द है । अर्थ दोनों का ही श्रेष्ठ है। समाधि के साथ जुडकर वरसमाधि जीवन की श्रेष्ठता प्रगट करती है और उत्तम समाधि मृत्यु की श्रेष्ठता प्रगट करती है। नमोत्थुणं की सर्वोपरि विशेषता यह है कि वह प्रारंभ से अंत तक हमें प्रभु के साथ बांधकर रखता है और इसी कारण हमारी जीवन समाधि और मृत्युसमाधि प्रभु चरणों में समा जाती है। कमल परमात्मा है या हम इसका उत्तर अर्थात् पुरिसवर पुंडरियाणं। जीवन के साथ वर शब्द जोडकर वर अर्थात् श्रेष्ठ ऐसा अर्थ करते हुए जीवन के साथ जुडे हुए श्रेष्ठत्त्व को हमारे जीवन के अंदर पुंडरिक बनकर प्रगट करनेवाले परमात्मा है। परमतत्त्व स्वयं तो पुंडरिक जैसे है परंतु जिनको उनका भावस्पर्श है वो भी पुंडरिक बन जाते है। इसलिए इस पद की समृद्धि नमोत्थुणं पुरिसवर पुंडरियाणं पद में प्रगट जाती है। जब तक हमें अंदर से पुंडरिक की स्पर्शना नहीं होती हैं ब नमोत्थुणं की साधना संपन्न होने का अनुभव नहीं होता है। सूत्र की संपन्नता और सफलता स्वयं सूत्र में ही समायी हुयी होती है। फिर भी बिना स्पर्शना के उसकी सार्थकता हममें परिणमीत नहीं होती हैं।
अंगशास्त्रों में सूर्यगडांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन का नाम पुंडरिक अध्ययन हैं। ज्ञातासूत्र में पुंडरिक और कुंडरिक नाम के दो भाइयों की चारित्रमय बोधकथा आती है। इसमें संयम के वैशिष्ट्य का महत्त्व बाताया गया है। यह भी महाविदेह क्षेत्र के पुंडरीकिणी नगरी की कथा हैं। इनके नामों संबंध भी कमल से जुडा हुआ है। पुंडरीक और कुंडरीक के पिता का नाम महापद्म हैं और बोध कथा का प्रारंभ नलिनीवन उद्यान में होता हैं। इस कथा में यह बताया गया हैं कि कुंडरीक एक हजार वर्ष तक संयम का पालन करते हैं परंतु अंत में संयम से विचलित हो जाने के कारण अल्प समय तक संसार उपभोग करके सातवीं नरक में जाते हैं। पुंडरीक जो हजारों वर्ष तक कीचड जैसे संसार में राज्योपभोग करते रहे परंतु कमलवत् निर्लेप रहकर अंतिम समय में अल्प दिनों में संयम का पालन कर समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। वहाँ से महाविदेह होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
भरतक्षेत्र के पूर्व और उत्तर दिशा का मध्यकोण जिसे हम ईशानकोण कहते हैं उसकी धुरी से सीधा 19,31,50,000 कि. मी. दूर महाविदेह क्षेत्र है । इस महाविदेह क्षेत्र में बत्तीस विजय है । महाविदेह क्षेत्र में विभागों को विजय नाम दिया है। इन बत्तीस विजय में एक विजय का नाम पुष्पकलावती है। इस विजय के राजधानी का नाम पुंडरिकिणी नगरी है। जिसमें अभी श्री सीमंधर स्वामी भगवान बिराजमान हैं। यह पूरी नगरी कमल जैसी है। जिसतरह खिला हुआ कमल पद्मसरोवर के अंदर सुशोभित होता है वैसे ही पुष्करविजय में पुंडरिक नगरी सुशोभित होती है। नगरी का प्रत्येक खंड कमलपत्र के आकार जैसा होता है। प्रत्येक खंड में रहे हुए छोटे-छोटे ग्राम, नगर,
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