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कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध और अधिकरण इसतरह सात भाग में बंट चुका है। सात में बंट जानेपर भी स्वयं अकेला है। हर व्यक्ति का अपना स्वयं होता है। चाहे हम परमात्मा के समवसरण में भी हो हम परमात्मा के अकेले भक्त है। स्वयं बहुत बलवान है। स्वयं स्वयं भगवान है। स्वयं केवल अव्यवहार राशि में अप्रगट होता है। व्यवहार राशि में प्रगट होकर वह बलवान हो जाता है। स्वयं की एक सहज व्यावहारिक परिभाषा है जैसे, हम कहते है, मैंने खुद अपनी आँखों से देखा। इसमें खुद जो है वह स्वयं है। प्रत्येक व्यक्ति का स्वयं अपना होता हैं। आप सोचोगे कैसे समझे हम स्वयं का उपयोग। स्वयं को समझते हुये भी हम नासमझ है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम कभी भी स्वयं को अपने निज स्वयं से नहीं देखते हैं। इसी कारण हमें हर दुसरों में गलती नजर आती है। इस स्व को समझाने के लिए परमात्मा सयं संबुद्धाणं बनकर प्रत्येक स्व में प्रगट हो गए।
जन्मजन्मांतर से मैं अस्तित्त्व में हूँ परंतु साक्षी में नही हूँ। सयं संबुद्धाणं हमारी चेतना में स्फुरणा लाते हैं और कहते हैं, तू जो भी कर स्वयं की साक्षी में रहकर कर। प्रयोग कर के देखो निरंतर सयं संबुद्धाणं आपके साथ हैं और वे निरंतर आपको साक्षी में रहने का सुचन देते हैं। कर्म करो या धर्म करो साक्षी में रहकर करो। जिस दिन प्रयोग सिद्ध हो जाएगा आपका साधना में प्रवेश हो जाएगा। आप स्वयं एकदम अप्रतिम हो जाओगे। परमात्मा कहते है, इसी का नाम समकित है।
सयं संबुद्धाणं पद से हम परमात्मा को नमस्कार करते हुये हमारे स्वयं के संबुद्धत्त्व को प्रकट करने की जिम्मेवारी देते हैं। जैसे की परमात्मा हमारे लिए अर्लाम क्लॉक हो गये। हमारा समर्पण तो श्रेष्ठ है परंतु व्यवहार जीवन में हमारी मूर्छा इतनी अधिक है कि रात को सोते वक्त घडी में अर्लाम हम ही सेट करते है और अर्लाम बजते ही हम उसे बंद कर पुनः सो जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है, अर्लाम समयपर घंटी बजाकर जगा तो सकता है पर मुंह पर ढंकी चर खोलकर आदमी को ऊठा नहीं सकता है। हम भी सयं संबुद्धाणं का अर्लाम बजा सकते हैं पर न जगते हैं न जगाते हैं।
परमात्मा को केवलज्ञान होने के पूर्व च्यवन जन्म आदि कल्याणक अवसर पर शक्रेन्द्र महाराज नमोत्थुणं से नमस्कार करते हैं क्योंकि परमात्मा तीन जन्मपूर्व ही सर्व जीवों के लिए मोक्ष की कल्याण कामना करते हुए तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन करते हैं। जन्म से ही तीर्थंकर को तीन ज्ञान होते हैं। तीन ज्ञान अनेक जीवों को होते हैं परंतु परमात्मा के तीन ज्ञान संबुद्धत्त्व के साथ होते हैं। भगवान महावीर जब मा के गर्भ में थे तब मा को पीडा न हो इसकारण स्वयं के शरीर को गर्भ में संकुरित करके हिलना डुलना बंद कर दिया था। गर्भ की धडकन, कंपन आदि का अनुभव न होने के कारण मोहवश माता विचलित हो गयी। इस विकल्प को समझकर प्रभु ने माता के अनुरुप बरतना शुरु किया। जन्म के बाद शक्रेन्द्र भगवान को अभिषेक के लिए जब मेरु पर्वत के पंडग वन पर ले गए तब जलाभिषेक के पूर्व इन्द्र के मन में आया इतना छोटा बच्चा ठंडे जल का अभिषेक कैसे सहन कर पाएगा? स्वयं संबुद्ध परमात्मा ने इन्द्र के मन की बात को जान लिया। तुरंत ही उन्होंने पॉव के अंगूठे से मेरु पर्वत को हिला दिया। पर्वत के कांपते ही इन्द्र भी भीतर से कांप गए। तुरंत ही भगवान की क्षमा मांगी। भगवान ने परावाणी के स्त्रोत में
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