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के अभाव में अव्यक्त अवश्य हो सकते है परंतु ये निजगुण उनकी साहजिकता हैं। योग्यता के आधारपर ये प्रकट हो जाते हैं।
1.परार्थव्यसनिताः- चराचर विश्व में स्वार्थ व्यसनी जीव अधिक होते हैं। परार्थ व्यसनी परमात्मा ही होते हैं। व्यसन उसे कहते हैं जो बारबार किया जाय। व्यसन तो हर एक को होता हैं परंतु जो परहितरसिक होते हैं वे परार्थ व्यसनी कहलाते हैं। स्वार्थ परार्थ और परमार्थ ऐसे तीन प्रकार के जीव संसार में होते हैं। अधिकांश स्वार्थव्यसनी होते हैं। परार्थव्यसनी और परमार्थव्यसनी पुरुषोत्तम परमात्मा होते हैं। चंडकौशिक को बूझाने के लिये भगवान १५ दिन तक उत्तरवाचाल में ध्यानस्थ रहे। इसतरह तीर्थंकरों के जीवन के कई उदाहरण उनकी परार्थव्यसनी वृत्ति के साक्षी हैं।
2. स्वार्थगौणता:- परार्थव्यसनी होने से स्वार्थ का गौण हो जाना स्वभाविक हैं। परमात्मा ने तीन भव पूर्व सर्व जीवों के लिए शासन रसिक की भावना करते हुए सर्व जीवों की कल्याण कामना की। यदि वे यह भावना नहीं करते तो उनकी तपश्चर्या ऐसी थी की उसी जन्म में मोक्ष हो जाता। परंतु सर्वजीव हेतु की गयी भावना के कारण उनका स्वार्थ गौण हो गया और परार्थव्यसन का गुण प्रधान हो गया।
___3. उचित क्रिया :- तीर्थंकरों के वाणी, विचार और वर्तन तीनों औचित्य से भरपुर होते हैं। भगवान महावीर दीक्षा लेने से पूर्व बडे भाई नंदीवर्धन के रोकने से दो वर्ष पर्यंत गृहस्थाश्रम में रहे थे। दीक्षा नहीं ली थी पर एकांत में रहते थे। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इस तरह दिशाओं के क्रम में छः छः महिना ध्यान में रहे थे। ऐसा क्यों किया उन्होंने? आपके लिए किया। औचित्य पालन गृहस्थ धर्म का एक अंग हैं परंतु इसे विवशता मान लेना अनुचित हैं।
4. अदीनभाव :- परमतत्त्व में दीनभाव की कल्पना भी नहीं कर सकते। परमात्मा स्वयं अदीन रहते हैं और उद्घोष भी करते हैं - "अदीण मणसा चरे।" वत्स! अदीन मन से विचरण कर। भगवान आदीनाथ के दीक्षा लेने के बाद आहारदान व्रत से अनभिज्ञ जनसमुदाय परमात्मा को भिक्षा नहीं दे सके थे तब बारह महीने के लंबे समय तक भगवान ऋषभदेव अदीनभाव से विचरण करते रहे।
5. सफलारंभ :- पुरुषोत्तम परमात्मा से हर कार्य का प्रारंभ सफल होता हैं। कभी निष्फल नहीं होते। ये सफल प्रवृत्ति भी सहज भाव से होती हैं। भक्तामर स्तोत्र में मुनि मानतुंगाचार्य कहते हैं, हे परमात्मा! आप ने मुझमें कर्मक्षय सहायता का सफलारंभ कर दिया हैं। भले ही आप नहीं दिखते हो। भले ही आप अव्यक्त हो परंतु आप मुझमें व्यवस्थित रुप में व्यक्त हो गए हो। तभी तो मेरी बेडियों के बंधन टूट रहे हैं। आपका आरंभ सफल होने के कारण ही हम आपको आईगराणं कहकर नमस्कार कहते हैं।
6. अदृढानुशयः- अनादिकाल से उत्तमता का गुण निहित होने के कारण अनिष्ट करनेवाले जीवों के प्रति गाढ क्रोध नहीं आता और उनके प्रति प्रबल अपकार बुद्धि नहीं होती हैं। शूलपाणीयक्ष, चंडकौशिक आदि कितने उपसर्ग करते हैं, फिर भी प्रभु उनके प्रति सहज करुणा का उपचार करते हैं।