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जाता है क्योंकि काम करके प्रगट होना मानव का स्वभाव है। मजे की बात तो यह है कुछ तत्त्व समाज में ऐसे भी है जिनको काम नहीं करना है पर सन्मान चाहिए। ये तीसरी कॅटेगरी के लोग हैं। ऐसे सामाजिक तत्त्व शैतान के नाम से पहचाने जाते हैं।
___ परम सत्ता तो जन्म से तीन भव पूर्व ही हमारा काम करना सुरु करती हैं। तीर्थंकर भव में भी करते हैं और सिद्ध होने के बाद भी वह अप्रकट सत्ता हमारे सिद्धत्त्व को प्रकट करने का अधिकार रखती हैं। हमारी प्रत्येक क्षण की, प्रत्येक प्रवृति, प्रत्येक पर्याय, प्रत्येक संकल्प-विकल्प की पर्यालोचना हो जाती हैं। जगत् में कही भी जाओ, कुछ भी करो वे जानते है। हर जगह वे व्यक्त है। फिर भी हम कहते है कि, वह अव्यक्त हैं। कभी कभी तो हम यह भी कह देते है कि, पता नहीं भगवान जैसी कोई सत्ता हैं या नहीं। एक खेल है जिसे लुकाछीपी (हाईड अँन्ड सिक) कहते है। इस खेल में एक बच्चा आँखों को ढंककर रखता हैं बाकी बच्चे छिप जाते है। अब वो एक बच्चा अन्य बच्चों को ढूँढता हैं। छिपने वाले बच्चा छुप छुप कर चालाकी से खोजने वाले बच्चे को देखता हैं छेडता हैं पर उसकी नजरों में ना चढे ऐसी चेष्टा करता हैं। यदि वह दिख जाता है तो वह हार जाता है। भगवान भी छिपने वाले बच्चे की तरह छुप छुप कर ढूँढनेवालों को देखते हैं। कभी हारते नहीं, कभी थकते नहीं, कभी हमारी नजरों में चढते नहीं। हमारे सारे प्रयास केवल मात्र उनको खोजने के हैं। जप, तप, ध्यान, कायोत्सर्ग, तपश्चर्या, नवकार, लोगस्स, नमोत्थुणं सब कुछ केवल मात्र उनको ढूँढने के प्रयास हैं।
प्रगट होने के तीन प्रकार हैं। पर्याय से, प्रज्ञा से और परिणाम से। दूसरे तरीके से इसे इसतरह कहते है - शरीर से, संबंध से और स्वरुप से पर्याय से व्यक्त व्यक्तित्त्व में जगत् हमें देखता हैं, जानता हैं, मानता हैं। हम जो दिखते हैं वह हम हैं और उसी पहचान से हम प्रसिद्ध होते हैं। पर्याय के साथ ही संबंध प्रगट होता है। जन्म के साथ ही माता पिता पर्याय को जिस नाम से संबोधित करते है हम हमें उसी नाम से पहचानते हैं। नाम की पहचान जब अधूरी महसूस होती है तब पिता का नाम लगता हैं। वह भी अधूरी महसूस होती है तो कुलनाम का उपयोग किया जाता हैं। जैसे मेरे बचपन में हम एक ही परिवार के तीन बच्चे स्कुल में पढते थे बी.सी. दोमडिया के नाम से पहचाने जाते थे। कई बार गडबड होती थी जैसे मैं भारती चीमनलाल दोमडिया, एक भाई भरत छोटालाल दोमडिया और एक भाई भरत चंदुलाल दोमडिया। आगे चलकर हमें अपनी पूर्ण पहचान पिता के पूर्ण नाम से देनी पडती थी। हमारा नाम जब अधूरा पडता हैं तब पिता का नाम हमारी पहचान को पूर्ण करता हैं। ये सब हमारे देह अर्थात् पर्याय की पहचान हैं।
प्रज्ञा की पहचान अर्थात् संबंध की पहचान। मानो मकान में उपर नीचे रहनेवाली लडकी आपके यहाँ रोज आती हो। साथ उठना-बैठना, खाना-पीना, कामकाज सब करती हैं लेकिन कभी अपने हाथ से कुछ लेती नहीं हैं। बायचान्स उस लडकी के साथ आपके बेटे का रिश्ता हो जाए तो कितना फरक पडेगा। पडोसी की बेटी को आप
अपनी बहु मानने लगेंगे। वह भी इस घर अपना घर मानने लगती है। पात्र वही हैं, परिवार भी वहीं हैं, घर भी वहीं हैं फिर भी संबंध में एक बहुत बड़ा अंतर महसूस होता हैं। यह केवल प्रज्ञा का ही तो अंतर है, बुद्धि का ही तो अंतर है। अपनापन जो है वह बुद्धि का स्वीकारा हुआ हैं।