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रहते हुये भी अस्तित्त्व से अव्यक्त हो जाते हो। नमो में स्वयं के साक्षी भाव का स्वीकार करो। स्वयं की साक्षी बनोंगे तो भगवान का साक्षात्कार होगा। चाहे नवकार मंत्र हो, लोगस्स सूत्र हो या भक्तामर सूत्र हो। पहले आपको अर्थात भक्त को साक्षी रुप में प्रगट होना पडेगा। आप स्वयंसाक्षी बनोगे तब भगवत्सत्ता का साक्षीत्त्व व्यक्त होगा।
कतृत्त्वपक्ष में हम अनायास मैं से जुड जाते हैं। मैं और मेरा इन दो कारणोंमें हमारा मैं फंस गया हैं। पहले तो मैं का ऑपरेशन करके उसे इस मेरेपन से मुक्त करना होगा। मेरेपन से मुक्त होकर शुद्ध होगा तभी वह परमपरात्मा पुरुषोत्तम को पहचान पाएगा। आनंदघनजी ने अच्छा कहा हैं, “धार तलवार नी सोहिली, दोहिली चौदमा जिन तणी चरणसेवा" परमात्मा की उपासना तलवार की धारपर चलने से भी अधिक कठिन हैं क्योंकि इसमें मैं को कतृत्त्व भाव से मुक्त करना हैं । कतृत्त्व से मुक्त होनेपर अस्तित्त्व प्रगट होता हैं। प्रगट अस्तित्त्व परम तत्त्व की उपासना करने में सफल होता है।
आप को इस बात का अनुभव होगा कि जिसको रोज दिनभर या दिन में तीन-चार बार खाना खाने की आदत हो और वह कभी उपवास आदि करे तो उसे भूख नहीं लगती हैं। छोटी उम्र में बडी बडी तपश्चर्याएं होती है। आप लोग कहते भी हो मेरा बेटा-बेटी, पोता-पोती आदि कभी भूखा नहीं रहता हैं। पांच-दस मिनिट लेट होता हैं तो शोर मचाता हैं और आज देखो कैसा तपश्या का जोर लगा लिया है। सोचो आप भूख क्यों नही लगी? पर्युषण के वातावरण में पुर अर्थात् नगर अर्थात् देह में शयन किया हुआ मालिक आज जग चुका है। उसकी जाग्रत अवस्था ने अपने दिल दिमाग को ऑर्डर किया है कि आज उपवास हैं। संकल्प के समय हमारी दोनों भौहों के बीच में रहे हुए आज्ञा चक्र के पास रही हुई पिच्यूटरी ग्रंथि में से विशेष हार्मोन्स स्रावित होते हैं। ये सभी एड्रोक्लाईन ग्रंथियों को सूचना देते है कि आज उपवास है। अंत:स्रावी ग्रंथियाँ सूचना मिलते ही अपनी सक्रियता को डायवर्ट कर देती है। आप ये तो अवश्य जानते हैं भूख और प्यास लगने पर मस्तिष्क में रहा हुआ हाईपोथेलोमस भक् भक् करता है। सारी ग्रंथियों को भूख-प्यास लगने की सूचना देता है। जब तक इसकी खानापूर्ती नहीं होती है तब तक वह मस्तिष्क में धूम मचाता है। यही कारण है कि भूख लगने पर व्यक्ति नियंत्रण से बाहर हो जाता है। उपवास होने पर स्वयं पिच्यूटरी ग्रंथि आदेश जारी करती है तो सारी ग्रंथियां शांति के मार्ग पर शांति से काम करती हैं। साधक यदि कमजोर हो, मन विचलित हो तो गडबड हो सकती है वरना आराम से तपश्चर्या जारी रहती है।
जीवन में प्राण का आयोजन श्वासोश्वास के साथ होता है। ऑक्सिजन लेना और कार्बन छोडना यह इस आयोजन की विशेष प्रणाली है। इनमें से एक भी प्रक्रिया कमजोर होती तो क्या होता है यह आप सब जानते हो। नगर में जिस तरह बाहर से आयात होता है उसी तरह निर्यात भी होता है। हमारे देह में भी ऐसी व्यवस्था है। खाना पीना आदि आयात होता है तो निर्गमन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। भूख की खाने की जितनी दवॉईयां नही होती उतनी पेट साफ करने की होती है। नगर में शयन करनेवाला पुरुष जब जाग जाता है तब आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरु होती है। “मिच्छामि दुक्कडं, अप्पाणं वोसिारामि।" आदि जन्म-जन्मांतर के दुर्भावों से मुक्ति दिलाता है। पुरुषोत्तमाणं स्वयं जगते है और अन्यों को जगाने के लिए ऐसी विश्व व्यवस्था स्थापित करते है।