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कहा, शक्रेन्द्र! हमारे प्रति आपका विश्वास मेरु पर्वत की तरह अडग होना चाहिए। आपकी आस्था नि:शंक होनी चाहिए। मेरु पर्वत का कंपन तुम्हारे विश्वास के कंपन के साथ तालमेल रखता है। तुम्हारा विश्वास शासन का विश्वास है। इन्द्र यदि तुम शंका करोगे तो शासन की सुरक्षा कैसे करोगे? इन्द्र का विश्वास क्षणवार कंपित हुआ था उसके उत्तर में भगवान ने मेरु पर्वत कंपा दिया। आज हमारा शासन के प्रति विश्वास कितनी बार कंपित होता है? सयं संबुद्धाणं पद से तीर्थंकर और गणधर भगवंत हमें बारबार जाग्रत करते है और कहते है, वत्स! तू कौन है? कहॉ जाना है इसकी खोज कर। ____बडी मुश्किल से मेहनत करके बडा डोनेशन दे कर के बच्चे को स्कुल-कॉलेज में एडमिशन दिलाने के बाद बच्चे यदि पढेंगे नहीं तो आपको कितनी पीडा होंगी। परमात्मा ने अपने जीवन की तीन जन्म हमारे लिए डोनेशन में दिए, पर हमने क्या किया? शासन की अवहेलना की या आदर किया? सोचो? यदि परमात्मा हमारे बारे में न सोचते तो उनका उसी भव में मोक्ष हो जाना था। ध्यान है न आपको? नंदनऋषी के भव में मासखमण पचखाते हुए गुरु ने शिष्य से प्रश्न किया था, वत्स! इतनी विशुद्ध तपश्चर्या के बाद भी तेरा मोक्ष क्यों नहीं हो रहा है? कौनसी इच्छा? कौनसी वांछा? कौनसी मनसा? तेरे मन में है? तब शिष्य ने कहा, प्रभु! कुछ नहीं बस केवलमात्र सर्व जीव को शासन प्रेमी बनाने की इच्छा है। जब एक ग्लास पानी देखता हूँ तो ऐसा मन करता है कि मेरा चले तो पानी के इन सभी जीवों को मोक्ष ले चलु। तीन भव पूर्व की प्रभु की इस कामना ने हमें सयं संबुद्धाणं मंत्र की उपासना के अधिकारी बनाए।
आज हम स्वयं को ही भूल रहे है। संस्कृत में दशम न्याय करके एक कथा आती है। एकबार दस घर में से एक-एक आदमी नदि पर नहाने के लिए गये थे। जाते समय उनको सूचना दी गई थी कि नदी में बाढ आई है सब सम्हलकर जाओ और सब एकसाथ वापस लौटो। उन्होंने वैसे ही करते हुये वापस लौटते समय घाटपर एक शयाने आदमी ने कहा, देखे तो सही कि हम सभी है तो सही कोई बाकी तो नहीं रहा। उसने गीनती करने के लिए सब को लाईन में खडे रखे और गिनती करने लगा। एक से नव तक गिनती होते ही लाईन खतम हो गई दस में से एक कहाँ गया? उसको घबराहट होने लगी। नव में से एक ने कहा, तुझे गिनती ठीक से नहीं आती तु लाईन में आजा मै गिनती करता हूँ। इसतरह सभी ने सब को गलत ठहराते हुये दस बार गिनती की। हर वक्त नव आने के कारण कोई तो भी एक मर गया है ऐसा मानकर मुंह पर कपडा ढंककर रोने लगे। इतने में एक पंडित जी वहाँ से निकले पूछा, क्यों रोते हो? कौन मरा? उन्होंने सब कथा सुनाई। पंडित जी एक ही नजर में सब भांप गए। उन्होंने कहा, चलो मैं सब ठीक करता हूँ। सब को लाईन में खडे किये और गिनती की पूरे दस होते ही सब खुश हो गए। पंडित जी का धन्यवाद किया। गांव में शोर मचाया पंडित जी बहुत उंची चीज है मरे हुए को वापस ला सकते है। पंडित जी की पूजा शूरु हो गई। पंडित जी ने मन ही मन सोचा मैं ने तो कुछ किया नहीं केवल सही गिनती कर दी। वे स्वयं को नहीं गिनने के कारण गलत गिनती करते थे। सर्व धर्म यहीं समझाते हैं कि, स्वयं को समझो, स्वयं को देखो, स्वयं को पहचानो, स्वयं को नहीं गिनने पर सारी गिनतियाँ गलत ठहरती है।