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संगम अर्थात संयोग प्राप्त होता है । उवसग्गहरं स्तोत्र में भगवान को "महायश" के संबोधन से संबोधित किये गये है। यहाँ कहा है, "इअसंथुओं महायस! भत्तिभर निब्भरेण हियएण" इस तरह से प्रस्तुत है। तूं यशस्वी है। तूं यश से भरा हुआ है, मैं भक्ति से भरा हुआ हूँ। तेरा यश छलकता है तो मेरी भक्ति छलकती है। देखो कैसा कम्पेक्ट, कैसा कम्पेरिझन है। भगवान के साथ कि तेरा यश इतना ज्यादा है कि जब वह भर जाता है और छलकता है उसमें से एकाद बूंद भी किसी इज्जत से दुःखी आदमी को मिल जाती है तो उसका बेडा पार होता है। जब इस पर मेरा चिंतन चल रहा था तब किसी की इज्जत खतरे में थी उसे महायशस्वी का स्मरण करने को कहा गया। महायशस्वी के स्मरण से वह उस खतरे से बच गया।
यश नामकर्म की एक प्रकृति है । यश अर्थात् कीर्ति । यश अर्थात् प्रतिष्ठा । यशनाम कर्म के परमाणु सभी के पास होते है परंतु अंशात्मक रुप में कम ज्यादा होते हैं। तीर्थंकर भगवान पूर्ण यशनाम कर्मवाले होते हैं। यह पूर्ण यश समग्र के साथ निकाचित होता है। इसी कारण विपाकोदय में भी समग्रता अर्थपूर्ण रहती है। तीर्थंकर जन्म से तीन भवपूर्ण सवी जीवकरु शासन रसीक की भावना के कारण तीर्थंकर नामकर्म के साथ ही यशनामकर्म संलग्न हो जाते हैं। परमात्मा के निर्वाण के समय जब सर्व कर्मक्षय होते है तब उनके ऐसे पुण्य परमाणु शासन रक्षक देवदेवी ले लेते हैं। ये परमाणु जिस आकार को ग्रहण करते हैं उसे अनाहत यंत्र कहते हैं। लोगस्स की पुस्तक में दिये गए अनाहत यंत्र में इन्हीं रेखाओं को अवतरित किया गया है। अक्षर की आकृति भी ध्वनि और नाद के द्वारा मंत्र बन जाती है। मंत्र नाद से अनहद बनता है और अनाहत के साथ जुडकर विश्व व्यवस्था में नियोजित शुभ परमाणुओं का आकर्षण करता है। तब हमारा पुण्य बढता है। परमात्मा वीतराग है। किसी से कुछ देते नहीं हैं पर उनका नाम स्मरण पुण्यस्मरण बन जाता है। जिस से हमें उचित फल मिलते हैं।
आनंदघनजी महाराज ने सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में इस फल को दो विभागों में बाटा है - "एहनुं फल दो भेद सुणीजे अनंतर ने परंपर रे...."
एक प्रकार है अनन्तर फल दूसरा प्रकार है परंपर फल। अनन्तर याने इसी जीवन में जो प्राप्त होता है और परंपर फल याने आनेवाले भविष्य में जो प्राप्त होता है। परमात्मा के स्तवन से अनंतर और परंपर दोनों फल प्राप्त होते हैं।
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जो भक्ति योग का मुक्तियोग में परिणमन करते हैं उन्हें भगवान कहा जाता है । परिणमन करनेवाले भावों को पारिणामिक भाव कहते हैं। भाव पाँच प्रकार के होते हैं उनमें पांचवा भाव परिणामिक भाव है । तत्त्वार्थ सूत्र का एक पूरा अध्ययर्ने इन भावों पर है। वही भाव जिसे हम रोज “भावे भावना भाविए भावे दीजे दान । भावे धर्म अधि भावे केवलज्ञान" रुप में रोज बोलते हैं। इन पंक्तियों में भाव शब्द छ: बार आता है। इस में मुख्य है भाव से भावना को भाना । दूसरी तरह से यहाॅ भावों के छ हों शब्दों में छः आवश्यक है। यदि छहों आवश्यक भावपूर्वक होते है तो केवलज्ञान का कारण बन सकते हैं।
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