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किया। शासन प्रेमी शक्रेन्द्रों से शक्रस्तव की साधना पायी । नमोत्थुणं सूत्र के द्वारा परमात्मा को नमस्कार किया परंतु फिर भी हम यहाॅ पर क्यों है ? आज भी कितनी तीर्थयात्राए होती है। क्यों नहीं मिलता है यात्राओं का फल? इन सारे प्रश्नों का एक ही उत्तर है। यात्राए तो होती है। तीर्थ की स्थानिक स्पर्शना होती है। कभी कभी तो स्थानिक स्पर्शना भी अजीब सी होती है। स्थानपर उतर कर स्थान का स्पर्श कर स्नान, भोजनादि से निवृत्त होकर यात्री बाजार मे मालसामान खरीदने या स्वजनों से मिलने इधर उधर हो जाते है। कई बार यात्रा के वाहन बस आदि उन्हें छोडकर आगे निकल जाते हैं। जब तक तीर्थ में आत्मिक स्पर्शना नहीं होती और तीर्थ के अधिष्ठाता तीर्थंकर की परम भक्ति आत्मसात् नहीं हो पाता। तब तक तीर्थ यात्रा फलित कैसे हो सकती है।
तीर्थ का प्रभाव अचिंत्य हैं। तीर्थ निर्माण से भगवान ऋषभ देव के साथ ४,००० पुरुषों ने दीक्षा ली थी। भगवान मल्लिनाथ के साथ ३०० पुरुषों ने दीक्षा ली थी। भगवान पार्श्वनाथ के साथ भी ३०० लोगों ने दीक्षा ला थी। भगवान वासुपूज्य के साथ ६०० पुरुषोंने दीक्षा ली थी। अन्य १९ भगवानों के १,००० पुरुषोंने दीक्षा ली थी। केवल भगवान महावीर ने ही अकेले दीक्षा ली और अकेले मोक्ष में गए।
तीर्थ की स्थापना करने से पहले भगवान महावीर गोदोहासन में बैठे थे। इस मुद्रा में पाँव की दसों अंगुलियों का जमीन से स्पर्श होता है। जानते हो परमात्मा ने जब इस मुद्रा में कैवल्य पाया वह स्थान था ऋजुबालुका नदी का तट। मतलब जिस नदि के तट की बालू अत्यंत ऋजु अर्थात नरम थी । क्या सोचते हो आप क्या वह तट भगवान के लिए आरामदायी डनलोप जैसा था? कभी प्रयोग तो करके देखो पता तो चले कि कितना मुश्किल है। ऐसी परिस्थिति में ध्यान करते हुए प्रभु में केवलज्ञान प्रगट हो गया। सर्वज्ञान सर्वदर्शन प्रगट हो गया । हाथ की हथेली में रखे हुये पदार्थ की तरह प्रभु में लोकालोक को देखने का सामर्थ्य प्रकट हो गया । मेरा प्रश्न है आपसे केवलज्ञान के बाद परमात्मा ने सबसे पहले क्या देखा होगा? क्या किया और क्या बोला?
किसी की शादी का एक आलबम आपके हाथ में आवे। एक के बाद एक तस्विर को देखते हुये आप आगे निकल जाते है । सोचो कहॉपर अटकते हो आप? उस आलबम में जहाँ जहाँ आपकी तस्विर है वहाँ वहाँ आप अटकते हो रुकते हो, झाँकते हो। देखते हो स्वयं को मै कैसा लगता हूँ। दर्पण में जब आप स्वयं का चेहरा देखते हो तब आपके चेहरे के साथ साथ दर्पण में अन्य पदार्थ भी दिखायी देते है। सच्चाई से बोलिए आप क्या-क्या देखोगे? सोचते है आप पदार्थ तो वैसे भी देख लेंगे। दर्पण में स्वयं को देखा जाता है। सोचो अब आप परमात्मा ने क्या देखा होगा? आत्मा में झलकते हुए आत्मा के दर्पण में परमात्मा ने स्वयं के आत्म स्वरुप को देखा। भीतर प्रगटते हुए अजस्त्र आनंद से अखिल ब्रम्हांड को भर दिया। आनंद को समाने के लिए जहाँ एकसाथ सब आनंद को प्राप्त कर सके उसके लिए तीर्थ करा और तीर्थंकर कहलाए। तीर्थ में योग्य शिष्यों को गणधर पद देकर त्रिपदी रुप तत्त्वत्रयी
संपूर्ण विश्व को अद्भुत भेंट दीं। यह त्रिपदी है - "उप्पन्ने इवा, विगमे इवा, धुवे इ वा ।” अर्थात् समस्त विश्व के पदार्थ उत्पन्न होते है। नाश होता है। स्थिर भी होते हैं। तीर्थंकरनामकर्म के उदय का प्रभाव ही ऐसा है कि उनसे उच्चारित इन पदोंका श्रवण गणधर शिष्यों के श्रुतज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम कराने में जबरदस्त निमित्त
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