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तित्थयराणं
जो भीतर के राग-द्वेष- कषायादि शत्रुओं का अंत करते है वे अरिहंत । जो भव, भय, भ्रम और भ्रमण का अंत करते है वे भगवंत । जो अनंत समाधि सुख की आदि करते है वे आईगराणं । जो अनंत समाधि सुख को देता है वह तीर्थ ।
जो अनंत समाधि सुखमय तीर्थ देते है वे तीर्थंकर । जो तीर्थ में हमें प्रवेश देकर मोक्ष तक ले जाने तक साथ देते है वे तीर्थंकर । परमात्मा हमें दो योग देते है। सिद्धांत योग और जीवन योग। सिद्धांत योग से हमें तत्त्व मिलता है और जीवन योग से तीर्थ । इसतरह हमें प्रभु से प्रदत्त दो भेंट है - तीर्थ और तत्त्व । तत्त्व की दृष्टि से देह और आत्मा अलग है ऐसा तो भारत के सभी धर्म-दर्शन कहते है परंतु देह में रहकर देहातीत होने की कला तो तीर्थ में ही समझी और पायी जा सकती है। तीर्थ और तीर्थंकर को समझाते हुए भगवती सूत्र में कहा है,
तित्थं भंते! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ?
गोमा ! अरहा तावणियमं, तित्थगरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे । तं जहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।
हे भगवन! तीर्थ को तीर्थ कहते है या तीर्थंकर को तीर्थ कहते है ?
हे गौतम! अरिहंत अवश्य तीर्थंकर है किंतु तीर्थ चार प्रकार के वर्णोंसे युक्त श्रमणसंघ है जैसे साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका । तीर्थ में भक्ति है और तत्त्व में विरक्ति है। शक्रेन्द्र ने एकबार कहा, इन दोनों में हमसे सिर्फ भक्ति हो पाती है। हम कहा विरति धर्म का पालन कर सकते है। इसी दृष्टि से मानव हमसे श्रेष्ठ है। आचारांग में इसी कारण कहा है- "तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुच्चइ" - तीर्थ तत्त्व- सत्य है, तथ्य है ( तथारूप है), अस्तित्त्व यहीपर स्पष्ट होता है, प्रतिपादित होता है। तत्त्व, तथ्य और अस्तित्त्व जहाँ रहते है वहाँ तीर्थ है। जिसमें बैठकर परमात्मा देशना देते है उसे समवसरण कहते है। गणधर भगवंत जहॉपर बैठकर धर्मदेशना देते
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गुरु सभा कहते है । परमात्मा की देशना पूर्ण होने पर उनके चरणासन पर बैठकर गणधर भगवंत परमात्मा की देशना को विस्तार से समझाते है। किसी के मन में कोई प्रश्न हो तो उसका समाधान करते है । जहाँ आचार्य बैठकर धर्म प्रवचन करते है उसे हम दरबार कहते है । उपाध्याय जहाँ बैठकर जीवों को बुझाते है उसे उपाश्रय कहा है। साधु-साध्वी जहाँ बैठकर श्रोताओं के अतः करण में परमात्मा देवगुरु धर्म का स्थान बनाते है उसे स्थानक कहते है । इन सभी तीर्थ निहित है।
जहाँ दो-तीन नदियों का संगम होता है उसे तीर्थ कहा जाता है। यहाँ तो साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रुप तीर्थस्वरुप नदियां बहती है। इसमें जन्मो जन्म की थकान दूर होती है। आश्रवों से स्लथित, थकित, भव्य आत्माओं का यह विश्राम स्थल है। तीर्थ के लिए जो यात्रा की जाती है उसे तीर्थयात्रा कहते हैं। गणधरों से प्रणिपात सूत्र प्राप्त
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