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गाडियों के चलने का हो वह सीधी सीधी खूशबु की ओर चल पडती है । अक्सीडन्ट होता है और उसकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। इसको कहते है प्रज्ञारहित आहारसंज्ञावाला जीव।
आहासंज्ञा मानव को भी होती है। वह भी किसी खाद्य सामग्री को पाने के लिए इधर उधर जाता है।वह प्रज्ञा के साथ जाता हैं। वैसे पदार्थ का संज्ञा और प्रज्ञा से कोई संबंध नहीं हैं। परंतु प्रज्ञा संज्ञापर नियंत्रण करती हैं। वह संज्ञा को रोक नहीं सकती हैं परंतु उसका मार्गदर्शन अवश्य करती हैं। वह उसे समझाती हैं, तुम पदार्थ के पास जाओ उसका उपयोग करो परंतु उसे पाने के लिए तुम्हें लालायित नहीं होना चाहिए। लालसा खतरा हैं केवल मात्र संज्ञा के आधारपर भगोगे तो तुम गिर सकते हो। तुम्हे कोई वाहन टकरा सकता हैं आदि आदि..। .
तीसरा हैं आज्ञामयी संबंध। आज्ञामयी संबंध में उपदेश, आदेश और संदेश सबकुछ आता हैं। जैसे माँ बच्चे को गरम दूध को नहीं छूने की आज्ञा देती हैं। सर्दी जुखाम होनेपर गोली, टॉफी या आईस्क्रीम नहीं खाने देती हैं। इसतरह हमारी सुख और साता प्रज्ञा और आज्ञा के द्वारा वहन होती हैं। इसी कारण वह पवित्र होती हैं। एकतरह से वह एक ऐसा प्रोडक्शन हैं जो पुनः पुनः पवित्रता को पैदा करता रहता हैं।
चार गतियों में घूमने के कारण हमें सुख की व्याख्या का पता नहीं चला। चींटी के भव में जब हम एक शक्कर की डली मिल गई तो उसमें सुख था । एक शक्कर की डली में सुख हो सकता है ? मानव भव पाया, पांच सात वर्ष के बच्चे हुए और एक टॉफी किसीने दे दी तो उसमें भी सुख मिला। बडे होनेपर मिठाई में सुख मिलने लगा। जीव ने पदार्थों में सुख ढूंढने की कोशिश करता हैं कि जगत के पदार्थ मुझे सुख देंगे, शांति देंगे, समाधान देंगे। फिर चाहे एक साइकिल भी क्यों न हो। जब साइकिल ली तो साइकिल में सुख हुआ। पर बडे होने पर मर्सिडीस कार लेंगे तभी सुख महसूस होगा। पता नहीं आप किस किस में सुख ढूंढ रहे हो? यदि पसीना होने में दुःख है, गर्मी लगने में दुःख है तो आप हमें सुख शाता क्यों पूछते हो। कभी वो दुःख शाता पूछो। आप जानते है पसीना होता है गर्मी होती है दुःख होता है । पंखा चलता है तो सुख होता है । आप ही जैसे हमारे पुद्गल है ना । आप ही जैसे लोगों से दिया गया है ना। औदारिक ही देह है ना । यह बॅक्रिय और आहारक शरीर तो नहीं है कि जैसा मर्जी रुप बना लेंगे। आपको गर्मी में दुःख होता हे तो हम साधु साध्वियों को गर्मीयों में सुख कैसे हो सकता है ?
___ यह कोई सुख नहीं है तो आईगराणं हमारे भीतर कौन से सुख की आदि करेंगे और वह कौन सा सुख होता है ? जिस सुख का हमें संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य बनने के बाद अनुभव होता हैं। हम अपने सुख की जिस आदि को ढूंढ रहे हैं उस आदि को , उस परम तत्व के सिवा कोई नहीं दे सकता । जिसको कहा जाता है सुख को देखने से नहीं मिलता, सुख को समजने से नहीं मिलता, सुख को पढने से नहीं मिलता । हम अब उस बात पर सोचेगें कि जिस सुख की प्राप्ति के बाद पसीने मे तर भगवान महावीर का एक श्रमण कहता है हांजी आनंद है, प्रसन्नता है।
संसार का कोई पदार्थ, संसार की कोई व्यक्ति, संसार का कोई माध्यम ऐसा नहीं है कि जो दुःख का अंत करके सुख की आदि करे। यही कारण रहा कि देह और आत्मा के भेद विज्ञान को समज लेने के बाद दुःख में भी सुख की शाता होती है। धूप में चलना, प्यासा रहना, पसीने से तर हो जाना ये सब दु:ख के कारण है परंतु हम सुख शाता पछते है तो संत मस्कराकर कहते है सखशाता है। भेद विज्ञान के द्वारा परमात्मा सुख शाता की आदि करते हैं। यही आदि सिद्धि की सफलता और मोक्ष का मार्ग बनती है। जिसके अत:करण में सुखशाता की आदि हो जाती है उसकी वाणी में सुख शाता प्रगट हो जाती है। उसके आत्मानंद का विमोचन हो जाता है। समाधि की सस्पर्शना हो जानेपर व्रत की प्रतिपालना होती है। एक छोटे से पचक्खाण में भी सव्वसमाहिवत्तियागारेणं शब्द का प्रयोग इसी कारण होता है कि पचक्खाण पालन में सर्वसमाधिभाव का होना आवश्यक है।
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