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१. उत्तरीकरणेणं :- उत्तरीकरण से स्पष्ट कर्मोंका नाश होता है। २. पायच्छित्तकरणेणं :- प्रायच्छित्तकरण के द्वारा पच्चक्खाण बद्धकर्म को साफ करने में पोंछा
__ लगाने का काम करता है। ३.विसोहिकरणेणं :- विशुद्धिकरण के इस प्रयोग में तप, जप, आदि रुप साबु के द्वारा आत्मा
की विशुद्धि होती हैं। ४.विसल्लिकरणेणं :- इसमे निकाचित कर्मोंका पुन:बंध न हो इसके लिए मायाशल्य,
निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य को हटाया जाता है। कर्मबंध से रहित होने के विविध प्रयोगों के द्वारा जैसे जैसे कर्म शिथिल होते जाते है वैसे वैसे जीव में समाधि सुख की शुरुआत होती जाती है। आपने सुख शब्द का प्रयोग कई बार किया हैं। आईगराणं में सुख के पूर्व समाधि शब्द का प्रयोग होता है। केवल सुख और समाधिसुख में क्या अंतर है ? केवलसुख क्षणिक होता है शाश्वत नहीं। आज सुख है तो कल दुख भी हो सकता है। जैसे पंखा गरमियों में सुख देता है तो सर्दियों में वह दःखदायी लगता है। क्योंकि सख-द:ख की यह व्याख्या पद्ल जन्य हैं। समाधि सख में आत्मजन्य परिभाषा इसकी वास्तविकता को खोलती है। सुख पंखे में नहीं है। सुख देह में भी नहीं है क्योंकि मृतदेह के साथ पंखे का सुख-दुःखदायी संबंध नहीं है। सुख आत्मा की संवेदना है। देह और आत्मा भिन्न है। आत्मा की उपस्थिति से देह में सुख-दुःख की अनुभूती होती है। साक्षीभाव से इस संवेदना को समझाने की आदि है आईगराणं।
प्रवास के समय आपको हजारो साधु-साध्वीयों की मुलाकात होती है। गरमी के दिनोंमें सामान उठाकर विहार करते समय उन्हें देखकर आप गाडी से उतरते हैं, वंदन करते हैं और एक जैन पारिभाषिक शब्द का प्रयोग करते हैं, आप सुख शाता में हैं ? क्या हैं ये सुख और शाता? सुख के साथ जब शांति आती हैं तब शांति के स्थानपर शाता शब्द का प्रयोग होता है। तपश्चर्या में भी तपस्वियों को शाता पूछी जाती हैं।
सुख के साथ शाता और शांति दो शब्द लगते है । दोनो भिन्न शब्द लगने से सुख की व्याख्या भिन्न लगती है। हमने शांति को इतना कोमन बना रखा है कि जिस में शरीर को सुख मिले तो हमारी आत्मा को शांति मिलती है और शरीर को दुःख होता है तो आत्मा को अशांति, आकुलता, व्याकुलता हो जाती है । शाता में ऐसा नहीं है । शाता में शरीर और आत्मा की दोनों प्रकार की व्यवस्था में एक बहुत बड़ा अंतर है । जैसे साधु-साध्वियों को विहार में इन्द्रियजन्य दुःख होते हुए भी वे दुःख की संवेदना से मुक्त रहते हैं। संयमजीवन के आनंद में आत्मजन्य संवेदना का अनुभव देता है सुख और शांति। इसीलिए सुख शाता पूछनेपर वे कहते हैं, आनंद है मंगल है। आनंद शब्द उनके भीतर से निकलता है। कभी तो बेठकर सोचो इतनी गर्मी में इतना चल रहे फिर भी आनंद मंगल कैसे हो सकता है? और आप उन्हें सुख शाता पूछते है इसका मतलब सुख शाता शांति इसकी व्याख्याओं में कही न कहीं कोई बहुत बड़ा राज है । इतना तो स्वीकार लो। आप जैन हो तो सुख किस में है इसको तो खोजो। यदि आपको उपलब्धि नहीं होती है तो आईगराणं से आदिकरालो। संज्ञाशील हो, संज्ञा को प्रछन्न करो, खोलो। गणधर भगवंत से प्रज्ञा लो। जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का स्वीकार करो।
. संज्ञा, प्रज्ञा और आज्ञा इन्हें समझना जरुरी हैं। जैसे कि एक चींटी को चीनी, शक्कर की खुशबु आती है और वह उस दिशामें चलना शुरु कर देती है । चींटी संज्ञा के आधारपर शक्कर के पास पहुंचती है। तो वह यह देखकर तो नहीं जाती कि मेरा मार्ग मेरा रास्ता अवरोध वाला है या नहीं है । ओक्सीडन्ट हो सकता है कि नहीं हो सकता है । ऐसा सोचकर वह नहीं जाती वह तो बस सिर्फ चली जाती है चाहे वह रास्ता लोगों के चलने का हो, चाहे