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विडियो की ओर होता हैं। उन्हें विडियो में रस होता हैं उद्घाटन में नहीं। इस उद्घाटन मे अधिक से अधिक लोग बुलाये जाते हैं । यहाँ तो उद्घाटन में कोई नहीं हैं सिर्फ सिर्फ सिर्फ हमारा मैं हैं । उसी मैं में भगवंताणं ने कुछ आदि करनी हैं। कुछ उद्घाटन करना हैं। संसार के उद्घाटनों के मुहुर्त तारीख वार आदि होते हैं। पर हमारे लिए तो हे परमतत्त्व ! तू जिस दिन मेरे भीतर प्रगट होगा और जब मेरे भीतर के भीतर तेरी स्पर्शना होगी तब मनमंदिर के द्वार का उद्घाटन होगा। मैंने भी प्रभु ! भीतर एक जगह ऐसी रखी हैं जहाँ तेरे सिवा और कोई नहीं आ सका हैं। उद्घाटन करनेवाला उद्घाटन करके कभी खाली हाथ नहीं जाता हैं। कुछ देकर जाता हैं । परमात्मा हमें क्या कर जाऐंगे? परमात्मा अतुलसुख संपन्न हैं। ऐसा सुख जिसे उपमा नहीं दी जाती। शास्त्रकार कहते हैं, अलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स णत्थि उ ।
परमात्मा अनंत समाधि सुख के दाता हैं। ऊर्ध्वगमनके मार्गदाता हैं । भगवती सूत्र में आईगराणं ने मोक्ष मार्ग की आदि के चार प्रयोग बताये हैं
१. पूर्वप्रयोग, २. बंधच्छेद, ३ तथागति और ४. असंगत्त्व। इसी को चार दृष्टांतों से समझाते हैं। कुम्हारचक्र, एरंडबीज, अग्निशिखा और लेपरहित तुंबी ।
प्रथम हम पूर्वप्रयोग को देखते हैं। कुम्हार दंड के द्वारा चक्र को जोर से चलाता हैं। जब वह एकदम चलाना छोड देता हैं तब भी चक्र थोडी देर तक चालु रहता हैं। चलाने की प्रक्रिया बंद करने के बाद भी चक्र के चलते रहने की क्रिया को पूर्व प्रयोग कहते हैं। पूर्वकृत पुरुषार्थ, पूर्वकृत उद्यम, पूर्वकृत प्रयत्न से जीव का उर्ध्वगमन होता हैं मोक्ष होता हैं। अनादिकाल से आत्मा हैं, अनादिकाल से संसार हैं, अनादिकाल से अज्ञान हैं, अनादिकाल से कर्म हैं। ये चार चीजें अनादिकाल से हैं। इसमें प्रथम आत्मा को छोड़कर बाकी तीन का अंत करके आत्मा के उर्ध्वगमन की आदि करनी है। बचपन में कभी आपने थाली या कटोरी को गोलगोल घूमाया होगा। घूमाना बंद कर देन के बाद भी थाली या कटोरी थोडी देर तक घूमते रहते है। बचपन में आप भँवरे (rotating toy) से खेले होंगे जो छोड ने के बाद बहुत देर तक घूमता रहता हैं। इसी तरह जीव संसार अवस्था में मोक्ष के लिए बारबार प्रयत्न करता हैं। पुरुषार्थ करता हैं। उद्यम करता हैं। ऐसा करते करते कभी अभ्यास छूट जाता हैं फिर भी संस्कार रह जाते हैं और जीव का ऊर्ध्वगमन शुरु हो जाता हैं। यही ऊर्ध्वगमन मुक्त जीवन का प्रयोग बन जाता हैं। धनुष्य में से छूटा हुआ बाण जैसे अपने लक्ष की ओर सीधा पहुंचता हैं। उसी तरह कर्म मुक्त आत्मा सीधा मोक्ष गमन करता हैं।
दूसरा प्रयोग बंधच्छेद का हैं । ऐरंड का वृक्ष आपने देखा होगा जिसपर ऐरंड के बीज होते हैं। सूर्य की किरणों में सूख जानेपर ये ऐरंड के बीज फटकर, उछलकर बाहर निकल जाता हैं। जब आत्मा की पूर्ण परिपक्वदशा हो जाती हैं तब परमात्मा की कृपा का वह पात्र बन जाता हैं। सूर्य की किरणों में सूखकर ऐरंडबीज जैसे फटता हैं, उछलता हैं वैसे ही परमात्मा की कृपा प्राप्त होनेपर आत्मा कर्म बंधन से मुक्त होकर उर्ध्वगमन करता हैं। तीसरा प्रयोग तथागति अग्निीशिखा का हैं। अग्निशिखा कभी नीचे नहीं जाती उपर उठती हैं। पानी हमेशा नीचे की ओर जाता हैं परंतु उसे गरम करनेपर भाँप जैसे उपर की ओर चली जाती हैं ऐसा उसका स्वभाव हैं। उसी तरह आत्मा का स्वभाव भी उपर की ओर जाने का ही हैं।
चौथा प्रयोग परहित तुंबी का हैं। मान लिजिए एक तुंबी और एक पत्थर पर मिट्टी का लेप करके पानी छोड दिया जाए। धीरे धीरे मिट्टी के पिघलने से लेप उतरता जाएगा। पत्थर डूबा रहता हैं पर तुंबी लेपरहित होकर उपर आकर तैरने लगती हैं। पत्थर कभी उपर नहीं आ सकता हैं। इसका क्या कारण हैं? कभी सोचा आपने? ध्यान रहे केवल मिट्टी के दूर होने से ही यदि चीज उपर आती तो पत्थर भी ऊपर आ सकता था परंतु ऐसा नहीं
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