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पुच्छिसुणं में भगवान के लिए "से भूड़पन्ने” और “जगभूइपन्न” अर्थात भूतिप्रज्ञ है ऐसा कहा है। जगत के जीवों की रक्षा जाननेवाले अर्थात् रक्षा कैसे की जाती है और उनके सर्व उपायों को जानकर इसे विश्व व्यवस्था का प्रयोजन बनानेवाले भूतिप्रज्ञ कहलाते है ।
हमारा सारा ऐश्वर्य केवल स्वभोगी है। परमात्मा का पूरा ही ऐश्वर्य पराभोगी है। परमात्मा अपना ऐश्वर्य भोगते ही नहीं है । उसको केवल दूसरे लोग भोगते है। उसके बाद संवर्धित परमात्मा का ऐश्वर्य जितना वापरा जाता उतना बढ जाता है। हमारी चीज जितनी वापरी जाती है उतनी घिसती जाती है। कम होती है। गाडी में पेट्रोल चलाया तो जितना चलाया उतना कम होता है। फिर कहते हो ये पुरानी हो गई। गाडी को निकाल देनी है। अरे गाडी की बात करते हो हमारे घुटने और कमर भी घिस घिस के कमजोर हो जाते है। हमारा पूरा ही ऐश्वर्य घटता घिसता है कम होता है लेकिन परमात्मा का ऐश्वर्य जितना उपभोग किया जाता है उतना बढता जाता है ।
ऐश्वर्य की तरह परमात्मा रुप भी अद्वितीय पराभोगी है। एक बार भरतचक्रवर्ती और शक्रेन्द्र महाराज के बीच में प्रतिस्पर्धा थी कि परमात्मा की स्तुति अधिक कौन कर सकता है, देव या मानव ? दोनों ने स्तुति का प्रारंभ किया। यह सिलसिला कुछ समय तो चला आखिर भरत महाराजा थक गये। उन्होंने शक्रेन्द्र से कहा मैं भाव से भरा हुआ हूं। हारा नहीं हूं पर थका जरुर हूं अतः हम इस कार्यक्रम को पुनः कल की सभा में जारी रखेंगे। शक्रेन्द्र ने हंसकर कहा महाराज! परमात्मा के गुण अमाप है, रुप अद्वितीय है, ऐश्वर्य अनंत है, ऐसे उनकी अनंत समृद्धि को हम स्तुति के रुप में कितने दिनतक गा सकेंगे? प्रभु की समृद्धि को अपने भीतर उतारने का सामर्थ्य किसका अधिक है यह जानना जरुरी है। भरत आप भले ही चक्रवर्ती हो परंतु मानव होने के कारण आत्मधर्म, विरीधर्म, दानधर्म का पालन करने में समर्थ हो अतः आप पूर्ण सामर्थ्य से संपन्न हो, शक्रेन्द्र के (मेरे) जिस रूप को आप देख रहे वह वैक्रेय शरीर है। इसे हम कम ज्यादा कर सकते है परंतु औदारिक शरीर को ऐसा करना संभव नहीं है। आप देख रहे है परमात्मा के पीछे एक तेजोमय, प्रकाशमय अतिसुंदर दिखायी दे रहा है उसे आभामंडल कहते हैं। आभामंडल के कारण समवसरण में आये हुए सभी जीवों को अपने सात भव दिखाई देते है। इसमें बीते हुए जन्म के तीन भव, इस भव का एक और आगामी जन्म के तीन भव ऐसे सात भव दिखाई देते हैं। भगवान का तेज इतना अधिक होता है कि कोई देख नही सकता, जनदर्शन के लिए इस आभामंडल में परमात्मा के रुप का उपसंहार होता है। यही उपसंहार हमारे भवों का उपसंहार करने में सहायक होता है। इसतरह परमात्मा का रुप एक ऐसा दर्पण है जिसमें हमारी चेतना साक्षी भाव से प्रगट होती है। आत्मा के आठ रोचक प्रदेश के कारण प्राप्त निर्मलता में मैं हूँ इतना ज्ञान होता है परंतु मै कौन हूँ? मेरा क्या स्वरुप है ? ऐसा ज्ञान परमात्मा के सान्निध्य में ही प्राप्त हो सकता है। राजन ! स्वभाव की स्वभाव में जो परिणती कराते है वे भगवान है।
हमें पुण्य की आवश्यकता है। नव पुण्य मेंसे प्रत्यक्ष चार पुण्य मनपुण्य, वचनपुण्य, कायापुण्य और नमस्कारपुण्य होते है। परोक्ष नव पुण्य एकसाथ परमात्मा के यशोगान से प्राप्त होते है । परमात्मा का यशोगान " त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्ष" होता है । अर्थात यशोगान करने से तीनों लोक में जो शुभ है उसका
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