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भ+ अंताणं :- भव, भय और भ्रम का अंत करनेवाले। ग+अंताणं :- गति के भ्रमण का अंत करनेवाले। व+अंताणं:- वर्गणाओं (कर्मों) के साथ के संबंध का अंत करनेवाले।
भगवंत अर्थात वे जो हमारे भ अर्थात् भव, भय, भ्रम का अंत करे। जो हमारे ग अर्थात् गतियों के भ्रमण का अंत करते हैं। जो वअर्थात वर्गणाओं (कार्मिक) के संबंध का अंत करते हैं।
जब भ्रम होता है तब भय होता है । जब भय होता है तब भव होता है और जब भव होता है तब भ्रमण होता है। जब हकीकत गुजरती है तब भय को मौका नहीं रहता है। भय हकीकत से पूर्व निजकल्पनारुप भ्रमसे उत्पन्न होता है। घटना के साथ भय का एक काल्पनिक संबंध होता है। इसी कारण भय और भ्रम से उत्पन्न भव के प्रति जीवको भय नहीं होता है। भवों का भय न होने के कारण भ्रमण के प्रति भी जीव भयभीत नहीं रहता है।
__ वसे वजन का अंत ऐसी भी व्याख्या होती है । आत्मा का स्वभाव अगुरुलघुगुणवाला है, परंतु कर्म संबंध के कारण वह वजनवाला हो जाता है। जैसे तुम्बे के ऊपर मिट्टि के लेप लगे हो तो वह पानी में डूब जाता है। उसी तुम्बे के लेपमुक्त होते ही वह पानी के उपर तैरने लगता है। उसी तरह जीव कर्म वजन से मुक्त होता हुआ लोक के अग्रभाग अर्थात् मुक्तदशा को प्राप्त होता है। समस्त चौदह राजु लोक प्रमाण ब्रह्मांड में धूल के रजकणों की तरह कार्मिक वर्गणाए व्याप्त है। जैसे पसीने या पानी से भीगे हुए या तेल से लिप्त देह पर धुल की रजें चिपकती है वैसे ही मन,वचन, काया के योग आत्म परिणति के अनुसार कार्मिकरजें आत्मा को चिपकती है उसे कार्मिक वर्गणा कहते है।
___आत्मा में जब राग द्वेष के कारण आंदोलन (स्पंदन) होते हैं तब वह ब्रह्मांड में व्याप्त कार्मिक वर्गणाओं को ग्रहण करता है। ग्रहण की जानेवाली ये कार्मिक वर्गणाए आत्म प्रदेशों के उपर छा जाती है। जैसे लोहचुंबक पर लोहे की रजकणे चिपकती है। इसमें आकर्षण का कारण लोहचुंबक है वह स्वयं ही लोहे की रजकणों को स्वयं की
ओर खींचता है, चिपकाता है और स्वयं वजनवाला हो जाता है। इसीतरह जीव राग द्वेष के कारण कार्मिक वर्गणाओं को स्वयं की ओर आकर्षीत करता है, खींचता है, चिपकाता है और स्वयं वजनवाला हो जाता है। भारी हो जाने के कारण तैर कर उपर आने में असमर्थ होता है। इस समय कार्मिक वर्गणाओं के साथ के संबंध का अंत करनेवाले भगवान का करुणामय सामर्थ्य हमें सहयोग देता है।
_____ भगवंत की यह शाब्दिक व्याख्या भगवंत के परंम स्वरुप के साथ संबंध जोड देती है । यह व्याख्या परमात्मा के महान अस्तित्त्व के साथ हमारा कतृत्त्व संयोजित करती है। परम अस्तित्त्व की साक्षी में हम स्वयं के सिद्धत्त्व को प्रकट करने के लिए कर्तृत्त्व का महायज्ञ चालु कर रहे हैं, जो हमने पहले कभी नहीं करा। हमारा कर्तृत्त्व परम के अस्तित्त्व की साक्षी के बिना केवल मात्र कर्म बंधन से संलग्न था। सुधर्मा स्वामी ने शासन की सत्ता सम्हालते ही सर्वप्रथम हमें नमोत्थुणं सूत्र का दान दिया। भगवान ऋषभदेव के पास राज्य की याचना करने के लिये आये हुए नमिविनमि को शक्रेन्द्र ने इसी नमोत्थुणं के द्वारा अनेक विद्याएं सिखाई।
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