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नमोत्थुणं - भगवंताणं
भगवत्ता जिनमें प्रगट होती है वे भगवान है । भव्य आत्मा का भविष्य भगवत्ता है ।
"भगवान ही अच्छे लगने" - संवेग है। भगवान अच्छे लगे अतः संसार नहीं सुहाता यह निर्वेद है। भगवान का आकर्षण संवेग है और संसार का विकर्षण निर्वेद है।
भगवान और संसार दोनों कभी भी एकसाथ नहीं रह सकते। मृगावती से जो गलती हुयी थी वह क्यों हुयी थी ? उसे भगवान अच्छे लगे। उसे भगवत्ता अच्छी लगी। भगवान अच्छे लगने पर संसार छोडना नहीं पडता है संसार छूट जाता है। दीक्षा अर्थात संसार छोडना नहीं संसार छूट जाना है। परमात्मा अच्छे लगने के बाद पदार्थ-परमाणुअच्छे नहीं लगते है। मृगावती भगवान में विलिन हो गयी थी इतना ही नही स्वयं में भगवत्ता प्रगट हो गई। ज्योतिर्मान दीपक के साथ एक तेल से भरे दीपक का सहजस्पर्श हुआ। केवल मात्र स्पर्श। अंतिम स्पर्श। भगवान ही बना दे ऐसा स्पर्श। स्पर्श पाकर समवसरण से बाहर आए यह बाहर सिर्फ मेरे आपके लिए है। वे तो स्वयं भीतर ही थी भगवान के साथ। घटना से पूर्व उपाश्रय उनका निज आवास था परंतु आज तो निज अंत:करण ही उनका निज का आवास था। :
गुरु ने देखा नियम तोडने का भय नहीं है। गुरु के उपालंभ का आभास नहीं है। भय क्यों हो सकता है ? भय और भगवान कभी एक साथ नहीं रह सकते। भय, भव और भ्रम का जो अंत करते हैं, वे ही तो भगवंत है। आज हम तीन शाब्दिक अभिव्यंजना के माध्यम से भगवंत शब्द का स्मरण, कीर्तन, पूजन का प्रारंभ करते है। भगवंताणं शब्द का भ+ ग+व+अंताणं ऐसा अनुप्रास है । इन तीनों अक्षरों से जुडाअंताणं शब्द का अर्थ है अंत करनेवाले। अंत उसका होता है जिसकी आदि हो। किस आदि का यहाँ अंत है उसका हार्द भ,ग,व शब्द में निहित है। अचरज तो इस बात का है कि संसार में सहज पहले आदि समझायी जाती है बाद में अंत। नमोत्थुणं सूत्र में सूत्र क्रम के अनुसार पहले अंत और बाद में आदि का सूत्र है। पहले अरिहंताणं और भगवंताणं पद है बाद में आइगराणं पद है। वह कौनसी आदि है जो अंत की प्रतीक्षा करती है । इस प्रश्न का उत्तर तो हम आइगराणं पद से लेंगे। अभी हम कुछ ऐसे अंत की चर्चा कर रहे है,जो आइगराणं पद की पूर्वभूमिका बन जाता है।
किसी भी पद को समझने के दो तरीके होते हैं। एक शब्दमय और दुसरा स्वरुपमय। शब्द की अभिव्यंजना पद के स्वामी की पहचान कराती है और स्वरुप की अभिव्यंजना स्वरुपमय बना देती है । नमोत्थुणं शब्द की सार्थकता भगवंताणं शब्द की स्वरुपमय व्याख्या में समाहित होती है। स्वरुप समझने से पूर्व शब्द समझना आवश्यक है क्योंकि हम शब्द से स्वरुप की ओर जा रहे है। भगवंताणं शब्द तीन शब्दों के अनुप्रासों के माध्यम से स्पष्ट होता है।
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