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मरणकण्डिका -७
दुख के कारणों को दूर करना जान का फल है चक्षुद्दष्टेर्मत: सारः, सादीनां विवर्जनम् ।
व्यर्थी भवति सा दृष्ट्वा, विवरे पतत: सतः ॥१५॥ अर्थ - चक्षु से देखने का सार सर्प आदि से दूर रहना है। देखकर भी आगे विद्यमान सर्प आदि के बिल में गिरने वाले मनुष्य की आँख्न व्यर्थ है ।।१५ ।।
प्रश्न - सम्यग्दृष्टि को चारित्र और तप की आराधना क्यों आवश्यक है?
उत्तर - जैसे नेत्र से देखते हुए भी सावधानी रूप आचरण न हो तो वह व्यक्ति गर्त में गिर जाता है, वैसे ही श्रद्धा और ज्ञानरूप नेत्र होते हुए भी चारित्र रूप सावधानी न होने से जीव संसाररूप गर्त में गिर जाता से जलवे ज्ञान और प्रना भी चालो आते हैं, क्योंकि मात्र श्रद्धा तथा ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। इससे यह सिद्ध होता है कि सम्यक्त्व तथा ज्ञान की आराधना के साथ चारित्र और तप भी अवश्य आराधनीय हैं ।।
अव्याबाध सुख प्राप्त करने की प्रेरणा निर्वाणस्य सुखं सारो, निाबाधं यतोऽनघम् ।
चेष्टा कृत्या ततस्तस्याँ, तदर्थ स्वहितैषिणा ॥१६॥ अर्थ - निर्वाण का सार बाधारहित और निर्दोष सुख है, अतः आत्मा का हित चाहने वालों को उस अव्याबाध सुख की प्राप्ति के लिए चेष्टा अर्थात् पुरुषार्थ करना चाहिए ॥१६॥
आराधना ही सबका सार है रत्नत्रये यतो यत्नः, सा साध्याराधनागमे।
आगमस्य तत: सारः, सर्वस्यैषा निरूपिता ।।१७॥ अर्थ - रत्नत्रय में प्रयत्नशील होना चारित्र है और आगम में चारित्र का सार आराधना कहा है, तथा सर्व आगमों का सार भी आराधना है। अर्थात् आगम का भी और चारित्र का भी सार मात्र एक आराधना है।।१७॥
मरणसमय भी आराधनाओं की विराधना अनन्त संसार का कारण है
चतुरङ्ग प्रपाल्यापि, चिरकालमदूषणम् ।
विराध्य म्रियमाणानामनन्ताऽकथि संसृति: ।।१८।। अर्थ - चिर काल पर्यन्त सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों - आराधनाओं का अतिचार रहित पालन करके भी यदि कोई मुनिराज मरणकाल में उन आराधनाओं की विराधना करके मरते हैं तो उनके अनन्तकाल पर्यन्त संसार-परिभ्रमण होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।॥१८॥
निर्दोष और सदोष चारित्र-पालन में महान् अन्तर है समिति-गुप्ति-संज्ञान-दर्शनादि-त्रयेशिनाम् । प्रवर्तितापवादानां, जायते महदन्तरम् ।।१९।।