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मरणकण्डिका -६
अर्थ - अथवा चारित्र की आराधना होने पर सर्व आराधनाएँ सम्पन्न हो जाती हैं किन्तु सम्यक्त्व एवं ज्ञान तथा तप की आराधना होने पर चारित्र आराधना भजनीय है अर्थात् वह होती भी है और नहीं भी होती।।११।।
चारित्र आराधना में दर्शन एवं ज्ञान आराधना होने का कारण कृत्याकृत्ये यतो ज्ञात्वा, करोत्यादान-मोक्षणे ।
अन्तर्भाव: चरित्रस्य, ज्ञान-दर्शनयोस्ततः॥१२॥ अर्थ - यह करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है, इस प्रकार जान कर ही यह जीव ग्रहण और त्याग करता है, इसलिए चारित्र की आराधना में ज्ञान एवं दर्शन की आराधना का अन्तर्भाव हो जाता है।॥१२॥
प्रश्न - जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान-दर्शन हैं ही, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर - असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं - अर्थात् संसार के कारणभूत, आस्रव तथा बन्ध के हेतु रूप अशुभ परिणामों का त्याग और मन, वचन, काय से संवर-निर्जरा के हेतु रूप व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा तथा परीषहजय और तप को अंगीकार करने का नाम चारित्र है। इस प्रकार के हेय एवं उपादेय रूप पदार्थों का त्याग तथा ग्रहण समीचीन श्रद्धा और ज्ञान के बिना नहीं होता, इसलिए कहा गया है कि जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान तथा दर्शन होते ही हैं।
चारित्र आराधना में तप आराधना का अन्तर्भाव व्यापारस्तत्र चारित्रे, मनोवाक्कायगोचरः ।
यो दूरीकृत-साध्यस्य, तत्तपो गदितं जिनैः ॥१३॥ अर्थ - माया, छल आदि को दूर कर चारित्र में मन, वचन और काय सम्बन्धी जो प्रयत्न साध्य का होता है वही तप है, ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है। अर्थात् जो छल, कपट एवं माया को छोड़कर चारित्र में प्रयत्नशील होता है, मुखिया स्वभाव छोड़कर उपयोगपूर्वक चारित्र में उद्यमशील है वही उसका तप है। इसीलिए चारित्र की आराधना में तप का अन्तर्भाव किया गया है ।।१३ ।।
आराधना के भेदों का उपसंहार एवं सर्वोत्कृष्ट सार चारित्रं पञ्चमं सारो, ज्ञान-दर्शनयोः परः ।
सारस्तस्यापि निर्वाणमनुत्तरमनश्वरम् ।।१४।। अर्थ - पाँच प्रकार के चारित्रों में पाँचवाँ यथाख्यात चारित्र है अत: कहा गया है कि ज्ञान और दर्शन का सार पाँचवाँ यधाख्यात चारित्र है और यथाख्यात-चारित्र का सार सर्वोत्कृष्ट एवं अविनश्वर निर्वाण प्राप्त होना है।॥१४॥
प्रश्न - चारित्र का सार निर्वाण है, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर - केवलज्ञान और केवलदर्शन तेरहवें गुणस्थान में और सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होता है, उसके होते ही निर्वाण हो जाता है। इसलिए ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र है तथा उस साररूप चारित्र का भी सार निर्वाण कहा गया है।