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मरणकण्डिका
अर्थ - जिनागम में संक्षेप से आराधना दो प्रकार की कही गई है। प्रथम दर्शन आराधना और द्वितीय चारित्र आराधना ॥ ६ ॥
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दर्शनाराधना के साथ ज्ञानाराधना की प्रतिपत्ति का क्रम सम्यक्त्वाराधने साधोः, ज्ञानस्याराधना मता । ज्ञानस्याराधने भाज्या, सम्यक्त्वाराधना पुरा ।। ७ ।।
अर्थ - सम्यक्त्व की आराधना हो जाने पर ज्ञानाराधना नियमतः होती है किन्तु ज्ञान की आराधना होने पर सम्यक्त्व की आराधना भजनीय है अर्थात् होती भी है और नहीं भी होती। अतः सर्व प्रथम सम्यक्त्वाराधना कही गई है ॥ ७ ॥
प्रश्न- सम्यक्त्व आराधना के साथ ज्ञानाराधना का अविनाभाव और ज्ञानाराधना के साथ सम्यक्त्वाराधना का भजनीयपना क्यों कहा है, यहाँ अविनाभाव क्यों नहीं कहा गया ?
उत्तर - समीचीन श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा श्रद्धान अज्ञात वस्तु में हो नहीं सकता अतः श्रद्धा का ज्ञान के साथ अविनाभाव है इसलिए तत्त्वश्रद्धान की आराधना करने पर सम्यग्ज्ञान की आराधना अवश्य होती है। इसी कारण इन दोनों का अविनाभाव कहा गया है।
ज्ञान और दर्शन में अविनाभाव नहीं है। कारण कि मिथ्याज्ञान की आराधना करने पर सम्यग्दर्शन की आराधना कदापि नहीं होती किन्तु सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यक्त्व की आराधना होती है अतः उसे भजनीय कहा गया है । 'सम्यग्ज्ञान' पद में सम्यग् विशेषण सम्यक्त्व का ही बोध कराता है अतः इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध स्वभावतः सिद्ध है।
मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान का आराधक नहीं होता ज्ञानं मिथ्यादृशोऽज्ञानमुक्तं शुद्धनयैर्यतः । विपरीतं ततस्तस्य, ज्ञानस्याराधना कुतः ॥ ८ ॥
अर्थ - जिस कारण से मिध्यादृष्टि जीव का ज्ञान शुद्धनय की दृष्टि से अज्ञान कहा गया है, तब विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान वाले उस जीव के ज्ञान की आराधना कहाँ से होगी? अर्थात् नहीं होगी ॥८ ॥
प्रश्न- यहाँ 'शुद्ध नय' पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अनन्त धर्मों का निषेध न करके अपितु उन्हें गौण करके किसी एक धर्म को कहना नय है। 'जो जिस रूप नहीं है उसे उस रूप दिखाना' यह भ्रान्त ज्ञान का कार्य है। वस्तु का स्वरूप सापेक्ष है । उसे निरपेक्ष प्रदर्शित करने वाला ज्ञान भ्रान्त या मिथ्याज्ञान है। जो 'भ्रान्त' या 'मिथ्या' दोष से रहित है वह शुद्ध है। इससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ निरपेक्ष अर्थात् मिथ्यानय या नयाभास का निराकरण करने के लिए नय में 'शुद्ध' विशेषण लगाया गया है।