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मरणकण्डिका ३
उत्तर इस पद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ग्रहण किये गये हैं। इनके संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं
तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन, स्व एवं पर के निर्णयात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान, पापबन्ध कराने वाली क्रियाओं का त्याग सम्यक्चारित्र तथा इन्द्रिय और मन के नियमन को सम्यक्तप कहते हैं।
प्रश्न- सम्यग्दर्शन आदि और सम्यक्त्वाराधना / दर्शनाराधना आदि में क्या अन्तर है ?
उत्तर - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के लक्षण ऊपर कहे गये हैं, ये प्रत्येक जब द्योतन से निर्व्यूढ़ अथवा उद्योतन से निस्तरण पर्यन्त का मार्ग निर्दोषतया प्राप्त करने योग्य विशुद्धि को प्राप्त कर लेते हैं तब दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना नाम प्राप्त कर लेते हैं। सम्यग्दर्शन आदि चारों के द्योतन आदि क्या हैं?
प्रश्न
उत्तर - (१) शंका, कांक्षा आदि दोष दूर करना सम्यक्त्व का द्योतन है ।
संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय आदि दोषों को दूर करना सम्यग्ज्ञान का द्योतन है।
पाँच महाव्रतों की स्थिरता के लिए पच्चीस भावनाएँ कही गई हैं, इनके प्रति होने वाले उपेक्षादि रूप दोषों को दूर करना चारित्र का द्योतन है और
असंयमजन्य परिणाम तप के दोष हैं, इन्हें दूर करना तप का द्योतन है ।
(२) सम्यक्त्वगुण का आत्मा के साथ बार-बार परिणत होना अथवा सम्यक्त्व गुण के साथ आत्मा की ऐक्य परिणति होना सम्यग्दर्शन का मिश्रण या उद्यवन है। इसी प्रकार ज्ञान आदि गुणों के साथ आत्मा की ऐक्य परिणति सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप का मिश्रण या उद्यवन है ।
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(३) सम्यक्त्व आदि चारों गुणों की पूर्णता सम्यग्दर्शन आदि चारों की सिद्धि है। अथवा निराकुलता पूर्वक इन चारों गुणों का वहन अर्थात् धारण करना इन सम्यक्त्व आदि चारों का निर्वहण है।
(४) ख्याति या पूजा या अन्य किसी लौकिक इच्छा के बिना सम्यक्त्व आदि चारों गुणों को धारण करना क्रमशः सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र एवं तप की व्यूढ़ि है । अथवा नित्य नैमित्तिक कार्यों की अधिकता के कारण सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र या तप गुण से हट कर उपयोग किसी अन्य कार्य में लग जाए तो उसे पुनः उसी में संलग्न करना प्रत्येक का साधन है।
(५) क्षुधा तृषादिजन्य वेदना, परीषह या उपसर्ग आदि उपस्थित हो जाने पर भी श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं तप से विचलित न होकर सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान को आगामी भव पर्यन्त ले जाना। अथवा सम्यक्त्व आदि चारों को उसी भव में मरणपर्यन्त धारण किये रहना या मरण पर्यन्त ले जाना प्रत्येक की निर्व्यूढ़ या निस्तरण है।
आराधना के भेद
आराधना द्विधा प्रोक्ता, संक्षेपेण जिनागमे । दर्शनस्यादिमा तत्र, चारित्रस्यापरा पुनः ॥६॥