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कातन्वव्याकरणम् कातन्त्रकार ने 'विभक्ति' शब्द की कोई परिभाषा तो नहीं की है, परन्तु उनके प्रयोग की व्यवस्था प्रकृत सूत्र में की है । तद्धित प्रकरण में तस् आदि प्रत्ययों की विभक्तिसंज्ञा प्राप्त होती है (कात० २/६/२४)।
कातन्त्रव्याकरण में स्यादि २१ प्रत्ययों के लिए तथा त्यादि १८ प्रत्ययों के लिए सूत्र नहीं बनाए गए हैं । अतः वृत्तिकार ने स्यादि २१ प्रत्ययों को यहाँ गिनाया है और उनसे सिद्ध होने वाले शब्दों के कुछ उदाहरण भी दिए हैं । टीकाकार आदि ने २१ प्रत्ययों में आने वाले अनुबन्धों की सार्थकता भी बताई है।
[विशेष]
पाणिनि ने "न्यापप्रातिपदिकात्" (अ० ४।१।१) इस अधिकारसूत्रद्वारा ङ्यन्त तथा आबन्त से भी 'सुऔ' आदि प्रत्यय विहित किए हैं । इसका स्पष्टीकरण करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है कि ड्यन्त और आबन्त शब्दरूपों से ही तद्धित प्रत्यय हों, सुबन्त से न हों - इसलिए यहाँ प्रातिपदिक से भिन्न ‘ड्याप्' का पाठ किया गया है, परन्तु इसे महाभाष्यकार 'पतञ्जलि आदि आवश्यक नहीं मानते । इस प्रकार कातन्त्रकार का ही सूत्रनिर्देश अधिक संगत सिद्ध होता है ।
८२. पञ्चादौ घुट् [२/१/३] [सूत्रार्थ]
स्यादि २१ प्रत्ययों में प्रारम्भिक 'सि, औ, जस्, अम्, औ' इन पाँच प्रत्ययों की घुट् सञ्ज्ञा होती है ।। ८२।
१. वस्तुतस्तु ड्यापोर्ग्रहणं मास्तु, सुबन्तादेव तद्धितोत्पत्तिः । सुपः प्रागेव च ड्यापौ प्रवर्तते । स्वार्थ
द्रव्य - लिङ्ग-संख्या - कारककुत्सादिप्रयुक्तकार्याणां क्रमिकत्वात् ।तथाहि - स्वार्थःप्रवृत्तिनिमित्तं जात्यादि । तज्ज्ञानं पूर्वं भवति, विशिष्टबुद्धौ विशेषणज्ञानस्य कारणत्वात् । ततस्तदाश्रयज्ञानम्, धर्मित्वेन प्रधानत्वाद् लिङ्गादिभिराकाङ्क्षितत्वाच्च । ततः स्वमात्रापेक्षत्वाल्लिङ्गस्य ज्ञानम् । ततो विजातीयक्रियापेक्षकारकापेक्षया सजातीयपदाथपिक्षसंख्याज्ञानम् । ततःकारकरूपविभक्त्यथपिक्षा भवति ।तन्निवृत्तौ कुत्सादिज्ञानमिति "कुत्सित०"(५।३।७४) इति सूत्रभाष्ये स्थितम् । शब्दरत्ने च परिष्कृतमेतत् (बालमनोरमा ४।१।१)।