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नामचतुष्टयाप्याये प्रथमो पातुपादः कातन्त्रैकदेशीय वररुचिप्रभृति आचार्य जो दीर्घ 'ई' आदेश स्वीकार करके 'जरसी' रूप बनाते हैं - यह समीचीन नहीं है । क्योंकि दीर्घ ईकारपाठ के बल से औ को ई आदेश पहले ही प्रवृत्त हो जाएगा । इसके अनन्तर सन्निपातलक्षणपरिभाषा से जरसादेश न होने के कारण केवल 'जरे' ही रूप निष्पन्न होगा, 'जरसी' रूप नहीं।
पाणिनि ने 'औङ्' को 'शी' आदेश किया है और उनकी प्रक्रिया के अनुसार 'अजरसी - अजरे' ये दो रूप उपपन्न होते हैं | पाणिनि के औङ्' निर्देश में '' अनुबन्ध का उपादान प्रथमा -द्वितीया विभक्तियों के द्विवचन ‘औ' और 'औट्' के ग्रहणार्थ किया गया है। कहा भी है -
"ङकारः सामान्यग्रहणार्थः, औटोऽपि ग्रहणं यथा स्यात्"। किं च -
औकारोऽयं शीविषी डिगृहीतो डिच्चास्माकं नास्ति कोऽयं प्रकारः। सामान्यार्थस्तस्य चासजनेऽस्मिन् डित्कार्य ते श्यां प्रसक्तं स दोषः॥ डित्त्वे वियाद् वर्णनिर्देशमात्रं वर्णे यत् स्यात् तच्च वियात् तदादौ । वर्णश्चायं तेन हित्त्वेऽप्यदोषो निर्देशोऽयं पूर्वसूत्रेण वा स्यात् ॥
__ (काशिकावृत्तिः ७।१।१८)। [रूपसिद्धि]
१. श्रद्धे। श्रद्धा+औ । प्रकृत सूत्र से औ को इ आदेश, “अवर्ण इवणे ए": (१।२।२) से आ को ए तथा परवर्ती इ का लोप |
२. माले।माला + औ । पूर्ववत् औ को इ, आ को ए तथा इ का लोप ।। १२०
१२१. डवन्ति यै-यास् - यास् - याम् [२।१।४२] [सूत्रार्थ]
श्रद्धासंज्ञक शब्द से परवर्ती ‘- ङसि - ङस् - ङि' प्रत्ययों के परवर्ती होने प क्रमशः उनके स्थान में 'यै - यास् - यास् - याम्' आदेश होते हैं । । १२१ ।