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नामचतुष्टयाध्याये तृतीयो युष्मत्पादः
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में कातन्त्रकार ‘ह -- श्-ए-छ्' वर्गों के स्थान में 'ड्' आदेश करके ‘मधुलिट्, मधुलिड्भ्याम्, सुविट्, सुविट्त्वम्, षट्, षड्भिः, शब्दप्राट्, शब्दप्राड्भ्याम्, देवेट, देवेड्भ्याम्, देवेट्त्वम्, रज्जुसृट्, रज्जुसृड्भ्याम्, रज्जुसृट्त्वम्' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं | पाणिनि "प्रश्वभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजछशां पः" (अ० ८।२।३६) से 'यजादि- छ् --श्' के स्थान में मूर्धन्य ष् तथा 'प्रलां जशोऽन्ते" (अ० ८।२।३९) से षु को इ आदेश करते हैं। 'मधुलिह' आदि में "हो " (अ० ८।२।३१) सेहकार को ढकार तथा "झलां जशोऽन्ते" (अ०८२।३९) से ढकार को डकारादेश करते हैं । 'षट्' आदि के साधनार्थ भी 'मलां जशोऽन्ते" (अ० ८।२।३९) से मूर्धन्य षकार को डकारादेश का विधान किया है।
[रूपसिद्धि]
१. मधुलिट् । मधुलिह् + सि | "यानाच्च" (२।१।४९) से सिलोप, प्रकृत सूत्र से ह को ड् तथा "वा विरामे" (२।३।६२) से ड् के स्थान में ट् आदेश ।
___२. मधुलिड्भ्याम् । मधुलिह् + भ्याम् । प्रकृत सूत्र से हकार को डकारादेश । ____३. मधुलिट्पाशः। मधुलिह् + पाश + सि । कुत्सितो मधुलिट् "कुत्सितवृत्तेम्नि एव पाशः" (२।६।४०-५) से कुत्सार्थ में पाश-प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से ह को ड्, "अघोषे प्रथमः" (२।३।६१) से ड् को ट्, 'मधुलिट्पाश' शब्द की लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से स् को विसगदिश ।
४. सुविट् । सुविश् + सि । पूर्ववत् सि - लोप, प्रकृत सूत्र से श् को ड् तथा ड् को ट् आदेश।
५. सुविड्भ्याम् । सुविश्+ भ्याम् । प्रकृत सूत्र द्वारा शकार को डकारादेश ।
६. सुविट्तरः। सुविश् + तरः । अयमनयोः प्रकृष्टः सुविट् । “बयोरेकस्य निर्धारणे तरः" से तरप्रत्यय, प्रकृत सूत्र से श् को ड्, "अघोषे प्रथमः" (२।३।६१) से ड् को ट्, लिङ्गसंज्ञा, सिप्रत्यय तथा स् को विसगदिश ।
७. षट् । षष् + जस्, शस् । “क्तेश्च जस्-शसोलुक्" (२।१।७६) से 'जस् - शस्' प्रत्ययों का लुक्, प्रकृत सूत्र से ष् को ड् तथा “वा विरामे" (२।३।६२) से डकार को टकारादेश ।