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नापचतुष्टयाध्याये तृतीयो पुष्यत्सादः [समीक्षा]
'विधभ् + सि, वाच् + सि' इस अवस्था में पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही आचार्य पवर्गीय प्रथम वर्ण प् एवं कवर्गीय प्रथम वर्ण क् आदेश का विधान करके 'विधप्, वाक्' शब्द निष्पन्न करते हैं । पाणिनि का सूत्र है - "वाऽवसाने" (अ० ८१४।५६) । कातन्त्रव्याख्याकार 'वा' शब्द का समुच्चय अर्थ स्वीकार करते हैं, तदनुसार वर्गीय प्रथम - तृतीय वर्ण होकर 'विधप् - विधब्, वाक्-वाग्' ये दो - दो रूप साधु माने जाते हैं । पाणिनीय व्याख्याकार 'वा' को विकल्पार्थक मानते हैं, तदनुसार भी चर्व न होने पर पक्ष में "मलां जशोऽन्ते" (अ० ८।२।३९) से जश्त्व उपपन्न होता है।
[रूपसिद्धि]
१. विधा, विध। विदभ् + सि । "हचतुर्थान्त०" (२!३!५०) से द् को ध् तथा प्रकृत सूत्र से भ् को प-ब् आदेश ।
२. वाक, वाग। वाच् + सि | "पानाच्च" (२।११४९) से सिप्रत्यय का लोप, "चवर्गद्रगादीनां च" (२।३१४८) से च को ग तथा प्रकृत सूत्र से ग को क्-ग आदेश ।।२८३।
२८४. रेफसोर्विसर्जनीयः [२॥३॥६३] [सूत्रार्थ]
विराम के विषय (शब्दावसान) में, घोष तथा अघोषसंज्ञक वर्ण के परे रहने पर रेफ एवं सकार के स्थान में विसर्ग आदेश होता है ।।२८४ |
[दु० वृ०]
रेफसकारयोर्विसर्जनीयो भवति विरामे = शब्दच्छेदे, घोषवत्यघोषे च । गीः, धूः, वृक्षः, पयोभ्याम्, पयःसु । वाऽधिकाराद् विभक्तिव्यञ्जने रेफस्य न स्यात् - गीर्ष, धूर्षु । भवति च - सजूःषु, आशीःषु ।।२८४।
[दु० टी०]
रेफ० । विरामो वर्णाभाव इति चेत् तर्हि पूर्वभागेऽपि विरामः स्यात्, ‘रसः, सरः' इत्यत्रापि विसर्गप्रसङ्गः । क एवमाह विपूर्वो रमिः स्वभावादारम्भपूर्वके वर्तते