________________
नामचतुष्टयाध्याये तृतीयो युष्पत्पादः
४८५
•
[समीक्षा] 'गिर्+ सि, धुर्+ सि, वृक्ष + सि पयस् + सुप्' इस अवस्था में शर्ववर्मा रेफ तथा सकार को विसगदिश करके 'गीः, धूः, वृक्षः, पयः सु' शब्द निष्पन्न करते हैं । पाणिनि ने केवल रेफ के स्थान में ही विसर्ग का विधान किया है, अतः स् को पहले “ससजुषो रुः” (अ० ८।२ । ६६ ) से और तब “खरवसानयोर्विसर्जनीयः ' (अ० ८।३।१५) से विसर्गादेिश प्रवृत्त होता है । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव ही कहा जा सकता है ।
17
[ रूपसिद्धि ]
१. गीः । गिर् + सि । " व्यञ्जनाच्च" ( २।१।४९ ) से सिलोप, "नामिनो बोरकुर्षुरोर्व्यञ्जने ” (३।८।१४ ) से रेफ की उपधा इकार को दीर्घ तथा प्रकृत सूत्र से रेफ को विसर्गादिश ।
२. धूः । धुर् + सि । पूर्ववत् सिलोप, उकार को दीर्घ तथा प्रकृत सूत्र से रेफ को विसगदिश ।
३. वृक्षः । वृक्ष + सि ! प्रकृत सूत्र से स् को विसर्ग |
I
"
४. पयोभ्याम् । पयस् + भ्याम् । प्रकृत सूत्र से सकार को विसर्ग, “अघोषवतोश्च " ( १/५/८ ) से विसर्ग को उ तथा " उवर्णे ओ" (१।२।३) से अकार को ओकार - परवर्ती ओकार का लोप ।
५. पयःसु । पयस् + सुप् । प्रकृत सूत्र से सकार को विसगदिश || २८४ । २८५. विरामव्यञ्जनादावुक्तं नपुंसकात् स्यमोलपिऽपि [ २/३/६४ ]
[ सूत्रार्थ ]
विराम के विषय में तथा व्यञ्जनादि प्रत्यय के परे रहते जो जो कार्य पूर्व में किए जा चुके हैं, वे सभी कार्य नपुंसकलिङ्ग वाले शब्दों से 'सि - अम् ' प्रत्ययों का लोप होने पर भी सम्पन्न होंगे || २८५
[दु० वृ० ]
विरामे व्यञ्जनादौ च यदुक्तं कार्यं नपुंसकलिङ्गात् परयोः स्यमोर्लोपेऽपि तद् भवति । श्रुतत्वात् तस्यैव । सुवाक्, सुवाग्, सुपधि, सुविद्वत्, सुपुम्, सुचतु:,