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नामचतुष्टयाध्याये तृतीयो युष्मत्पादः
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[समीक्षा]
'हे राजन् + सि' इस अवस्था में “लिङ्गान्तनकारस्य " ( २ । ३ । ५६ ) से नकार का लोप प्राप्त होता है, परन्तु सम्बोधनविभक्ति के एकवचन = संबुद्धि में नकारलोप का निषेध पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही आचार्य करते हैं । पाणिनि का सूत्र है - "न ङिसंबुद्ध्योः " (अ० ८।२।८) । अतः 'हे राजन् ! ' शब्दरूप निष्पन्न होता है । इस प्रकार उभयत्र प्रक्रियासाम्य है ।
[ रूपसिद्धि ]
१. हे राजन् ! हे राजन् + सि । "व्यञ्जनाच्च" (२।१।४९ ) से सिलोप, 'लिङ्गान्तनकारस्य” (२|३ | ५६ ) से प्राप्त नलोप का प्रकृत सूत्र से निषेध |
२. हे साम ! हे सामन् ! हे सामन् (नपुंसकलिङ्ग) + सि । " लिङ्गान्तनकारस्य ” ( २ | ३ |५६ ) सूत्र से प्रकृत सूत्र को पृथक् करने से नपुंसकलिङ्ग में नलोप का निषेध वैकल्पिक माना जाता है । तदनुसार नलोप के न होने पर 'हे सामन् ! ' तथा लोप हो जाने पर 'हे साम !' यह प्रयोग निष्पन्न होता है ।। २७८ ।
२७९. नसंयोगान्तावलुप्तवच्च पूर्वविधौ [ २।३।५८ ] [ सूत्रार्थ ]
" अकारो दीर्घं घोषवति” (२|१|१४) सूत्र द्वारा विहित दीघदिश से लेकर “लिङ्गान्तनकारस्य” (२। ३ । ५६) द्वारा विहित नलोपपर्यन्त जितनी भी पूर्वनिर्दिष्ट विधियाँ है, उनके प्राप्त होने पर नकार वर्ण तथा संयोगान्त वर्ण का लोप हो जाने पर भी अलुप्तवद्भाव होता है ।। २७९ ।
[दु० बृ० ]
नकारसंयोगान्तौ लुप्तावप्यलुप्तवद् भवतः पूर्वविधौ लिङ्गान्तदीर्घादिके कर्तव्ये । राजभ्याम्, राजभिः, राजसु विद्वान्, सुकन्भ्याम् ।। २७९ ।
[दु० टी० ]
न संयो० | नश्च संयोगान्तश्च द्वन्द्वः । अलुप्ताविवालुप्तवत् प्रसज्यार्थे नञ् । अविवक्षितकर्मत्वात् कर्तरि वा निष्ठा । यथा 'लुप्तोऽयं देवदत्तः ' इति कार्यातिदेशोऽयम्