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नामचतुष्टयाप्याये तृतीयो युष्मत्पादः घोषवत्प्रतियोगिकघोषाश्रितविसर्गरूपकार्यान्तरसाधनार्थमेव पर्यवस्यतीति । अन्यथा घोषवतीति नियमेन किं कृतमिति। ननु 'लिङ्गान्तनकारस्य' इत्यत्र लिङ्गग्रहणस्य सामान्यार्थत्वेनैव मज्जतीत्यादौ तृतीयादिकं सिध्यति, किमुत्तरत्र सामान्यार्थत्वेन घोषवद्ग्रहणेन ? सत्यम् । उत्तरत्र घोषवद्ग्रहणानुवर्तनात् कृपणमित्यादौ पकारादेः स्वरे परे तृतीयाभावः फलमिति ।।२८०।
[समीक्षा]
'सर्पिस् + भ्याम्, धनुस् + भ्याम्, दोस् + भ्याम्' इस अवस्था में कातन्त्रकार ने सकार को रकारादेश करके ‘सर्पिभ्याम्, धनुाम्, दोभ्याम्' शब्दरूप सिद्ध किए हैं । पाणिनि ने "ससजुषो रुः" (अ० ८।२।६६) से स् को रु आदेश करके उक्त प्रयोग सिद्ध किए हैं। प्रक्रिया की दृष्टि से उभयत्र प्रायः साम्य ही है।
[रूपसिद्धि] १. सर्पिाम् । सर्पिस् + भ्याम् । प्रकृत सूत्र से सकार को रकारादेश |
२ .३. धनुर्ध्याम् । धनुस् + भ्याम् । दोाम् । दोष + भ्याम् । उभयत्र प्रकृत सूत्र से स् को र आदेश ।
[विशेष]
वृत्तिकारादि के अभिमतानुसार सूत्रकार को 'इसुस्दोषां भे रः' ऐसा ही सूत्र बनाना चाहिए था । इससे भी अभीष्ट सिद्धि अविकल रूप में हो जाती है, फिर भी जो ‘घोषवति' यह पाठ किया गया है, वह "धुटां तृतीयः" (२।३।६०) इस उत्तरवर्ती सूत्र के लिए भी समझना चाहिए - यह उन्होंने समाधानपक्ष दिखाया है- "भे रः इति सिद्ध घोषवतीत्युत्तरार्थ च" (दु० वृ० २।३।५९) ।।२८०।
२८१. धुटां तृतीयः [२।३।६०]
[सूत्रार्थ]
घोषवत्संज्ञक वर्ण जिसके आदि में हों ऐसे प्रत्ययादि के परवर्ती होने पर धुसंज्ञकवर्गों के स्थान में वर्गीय तृतीय वर्ण होते हैं ।।२८१।