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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
‘राजन् + भ्याम्, राजन् + भिस्, राजन् + सुप्, विद्वन्स् + सि, सुकन्स् + भ्याम्' इस अवस्था में 'राजन्' - घटित नकार का लोप होने पर " अकारो दीर्घ घोषवति" (२।१।१४ ) से दीर्घादिश प्राप्त होता है तथा 'विद्वन्स्' - घटित संयोगान्त सकार का लोप होने पर " लिङ्गान्तनकारस्य” (२|३|५६ ) से नलोप प्राप्त होता है। यदि ‘राजभ्याम्' आदि में दीघदिश तथा 'विद्वान्' में नलोप प्रवृत्त हो जाए तो अनिष्ट रूपों की आपत्ति होगी - ऐसा न हो एतदर्थ कातन्त्र में नलोप तथा संयोगान्तलोप का (अतिदेश) अलुप्तवद्भाव किया गया है । फलतः दीर्घ नलोप कार्य नहीं हो पाते । पाणिनीय व्याकरण में " पूर्वत्रासिद्धम् " ( अ० ८।२।१) सूत्र द्वारा संयोगान्तलोप ( संयोगान्तस्य लोपः - अ० ८।२।२३) को तथा “ नलोपः सुप्स्वरसंज्ञातुग्विधिषु कृति" (अ०८।२।२) द्वारा नलोप को असिद्ध मानकर उक्त रूप निष्पन्न किए गए हैं ।
[रूपसिद्धि ]
१ . राजभ्याम् । राजन् + भ्याम् । “लिङ्गान्तनकारस्य " (२।३।५६ ) से नलोप तथा प्रकृत सूत्र से नलोप का अलुप्तवद्भाव करके " अकारो दीर्घं घोषवति" ( २।१।१४ ) से प्राप्त दीर्घादिश का प्रतिषेध |
२ . राजभिः । राजन् + भिस् । पूर्ववत् नलोप, उसका अलुप्तवद्भाव तथा सकार को विसगदिश ।
३ . राजसु । राजन् + सुप् । पूर्ववत् नलोप तथा उसके अलुप्तवद्भाव से दीर्घ आदेश का निषेध |
४. विद्वान् । विद्वन्स् + सि । " घुटि चासंबुद्धौ” (२/२/१७) से न् की उपधा को दीर्घ, "व्यञ्जनाच्च" (२।१।४९) से सिलोप तथा " संयोगान्तस्य लोपः " ( २ । ३ । ५४ ) से सकारलोप ।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि संयोगान्तलोप हो जाने पर " लिङ्गान्तनकारस्य " (२।३।५६) से नकार का लोप प्राप्त होता है - इसके वारणार्थ प्रकृत सूत्र से संयोगान्तलोप का अलुप्तवद्भाव किया गया है। जिसके फलस्वरूप 'विद्वान्' आदि शब्दरूप नकारघटित सिद्ध होते हैं ।