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कातन्त्रव्याकरणम्
संयोगान्तलोप इति चेत्, नैवम् । क्विपि बुद्धिस्थेऽत्राकारलोपे सकारमात्रस्याविशिष्टत्वेन प्रत्ययस्थत्वाभावान्न षत्वमिति । तथा च प्रत्यये तिष्ठतीति प्रत्ययस्थ इति षत्वसूत्रे टीकायां वक्ष्यति । ननु ‘दध्यत्र' इत्यत्र पदविराममाश्रित्य संयोगान्तलोपः कथन्न स्यात्, नैवम् । एकपदाश्रितत्वाद् अन्तरङ्गे संयोगान्तलोपे कर्तव्ये पदद्वयमाश्रितस्य सन्धिकार्यस्य बहिरङ्गस्यासिद्धत्वात् ।। २७५ ।
[समीक्षा]
'विद्वन्स् + सि, कटचिकीर्षु + सि, पुमन्स् + भ्याम्, पुमन्स् + सुप्' इस अवस्था में पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ने ही संयोगसंज्ञक ' न् + स्, र् + ष्' वर्णों के अन्त में विद्यमान सू - ष् वर्णों का लोप करके 'विद्वान्, कटचिकी:, पुम्भ्याम्, पुंसु' शब्दरूप सिद्ध किए हैं । पाणिनि का भी यही सूत्र है - " संयोगान्तस्य लोपः " (अ०८।२।२३) ।
[ विशेष ]
'दध्यत्र' में पदविराम की दृष्टि से ' ध् +य्' संयोगसंज्ञक वर्णों में जो अन्तिम कार का लोप प्राप्त होता है, उसका समाधान करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है - एकपदाश्रित होने के कारण संयोगान्तलोप अन्तरङ्ग है, उसके प्राप्त होने पर पदद्वयाश्रित बहिरङ्ग सन्धिकार्य ( इकार को यकारादेश) असिद्ध हो जाता है । अतः संयोगान्तलोप की प्रवृत्ति नहीं होती ।
[ रूपसिद्धि ]
१. विद्वान् । विद्वन्स् + सि । " व्यञ्जनाच्च” (२।१।४९) से सिप्रत्यय का लोप, ‘सान्तमहतोर्नोपधायाः” (२।२।१८) से दीर्घ तथा प्रकृत सूत्र से सकार का लोप ।
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२. कटचिकीः । कटचिकीर्षु + सि । सिप्रत्यय का लोप, प्रकृत सूत्र से संयोगान्त कार का लोप तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः " ( २ । ३ । ६३) से रेफ का विसगदिश ।
३. पुम्भ्याम्। पुमन्स् + भ्याम् । अन् के अकार का लोप, 'म् - न् - स् ' इन संयोगसंज्ञक वर्णो में अन्तिम सकार का प्रकृत सूत्र से लोप तथा नलोप ।
४. पुंसु । पुमन्स् + सुप् । अन् के अकार का लोप, प्रकृत सूत्र से संयोगान्त सकार का लोप, नलोप तथा मकार को अनुस्वारादेश || २७५ |