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कातन्त्रव्याकरणम्
२. 'द्विजिह्वमाचष्टे द्विजिट, अदभ्रमाचष्टे अदप्' आदि में तृतीय वर्ण को प्रकृत आदेश न करने के लिए व्याख्याकारों के अभिमतानुसार ‘अजकारादेः' भी पढ़ना चाहिए।
३. 'मृगावित्' में व् को अन्तस्थासंज्ञक माना जाए या ओष्ठस्थानीय ब् । इसका निर्णय दो कारिकाओं में किया गया है -
पत्र यत्र वकारः स्यात् संयुक्तो दधषैः सह । अन्तस्यां तां विजानीयात् तदन्यो वर्य उच्यते ॥ उदूटौ यत्र वियेते यो वः प्रत्ययसन्धिनः।
अन्तस्थां तां विजानीयात् तदन्यो वर्ष उच्यते॥ अर्थात् 'द्वि' आदि में दकार के साथ, 'ध्वंस्' आदि में धकार के साथ तथा 'ष्वन्ज्' आदि में मूर्धन्य षकार के साथ रहने के कारण 'व्' अन्तस्थासंज्ञक ही माना जाएगा । इसके अतिरिक्त जहाँ उत्व अर्थात् सम्प्रसारण तथा ऊठ आदेश प्रवृत्त होता है । जैसे – 'भवन्त्' शब्दघटित 'व' को उत्व आदेश (२।२।६३)- भोः ! तथा 'दिव्' - घटित व् को ऊठ्- अक्षयूः (४।११५६) । प्रत्ययसन्धिज-द्वाभ्याम् आदि । द्वि+भ्याम् । इकार को अकार, दीर्घसन्धि । इस प्रकार 'द्-ध्-' वर्गों के संयोग में, 'उत्व-ऊठ' आदेशों में तथा प्रत्ययसंबन्धी सन्धि से निष्पन्न होने वाला वकार तो अन्तस्थासंज्ञक होता है, शेष स्थानों में उसे पवर्गीय मानना चाहिए |
[रूपसिद्धि]
१. निघुट् । नि + गुह् + सि । “व्यानाच्च" (२।१।४९) से सिप्रत्यय का लोप, प्रकृत सूत्र से ग् को घ्, “हशषछान्तेजादीनां डः" (२।३।४६) से ह् को ट् तथा "वा विरामे" (२।३।६२) से डकार को टकारादेश |
२.निघुड्भ्याम् ।नि + गुह् + भ्याम् । प्रकृत सूत्र से ग् को घ् तथा "हशषधान्तेजादीनां उः" (२।३।४६) से हकार को डकारादेश ।
३.निघुट्त्वम् । नि + गुह् + त्व + सि । निगुहो भावः । “तत्वौ भावे"(२।६।१३) से त्वप्रत्यय, प्रकृत सूत्र से गकार को घकार, "हशषछान्तेजादीनां डः" (२।३।४६)