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नामचतुष्टयाध्याये तृतीयो युष्मत्पादः
२५७. टौसोरन [२१३।३६] [सूत्रार्थ]
तृतीया -- एकवचन 'टा' प्रत्यय तथा षष्ठीसप्तमी-द्विवचन ‘ओस्' प्रत्यय के परे रहते अक्-वर्जित 'इदम्' शब्द को 'अन आदेश होता है ।।२५७।
[दु. वृ०]
इदमोऽग्वर्जितस्य टौसोर्विभक्त्योरनादेशो भवति । अनेन, अनयोः । अनगिति किम् ? इमकेन, इमकयोः ।।२५७।
[दु० टी०]
टौ०। ननु षष्ठीमाश्रित्य किमित्यादेश उच्यते, नैवम् । अभ्युपगमवादोऽयम् आदेशेऽपि न दोषः। 'अन' इति सस्वरोऽयम्, अकारमन्तरेणाप्युच्चारयितुं शक्यत्वात् ।।२५७।
[वि० प०]
टो० । इह सुखप्रतिपत्त्यर्थम् अर्थवशाद् विभक्तिविपरिणाममाश्रित्य षष्ठ्यन्ततां दर्शयन्नाह - इदमोऽग्वर्जितस्येति ।।२५७।
[समीक्षा]
'इदम् + टा, इदम् + ओस्' इस अवस्था में पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ही शाब्दिकाचार्य 'अन' आदेश करके ‘अनेन, अनयोः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । अन्तर यह है कि कातन्त्रकार 'इद' को अकारान्त 'अन' आदेश करते हैं और पाणिनि केवल 'इ' को हलन्त 'अन्' आदेश । दोनों ही प्रक्रियाओं में 'अन' रूप अकारान्त ही रहता है । पाणिनीय सूत्र है -- "अनायकः" (अ०७।२।११२)। अतः प्रक्रिया में प्रायः साम्य ही है।
[रूपसिद्धि]
१. अनेन । इदम+टा । "त्यदादीनाम विभक्तौ" (२/३/२९) से म को अ, दकारोत्तरवर्ती अ का लोप, प्रकृत सूत्र से 'इद' को 'अन' "इन टा" (२।१।२३) से टा को 'इन' तथा "अवर्ण इवणे ए" (११२!२) से अकार को एकार-परवर्ती इकार का लोप।
२. अनयोः। इदम् + ओस् (षष्ठी - सप्तमी - द्विवचन)। म् को अ, अकार - लोप, 'इद' को 'अन' "ओति च" (२।१।२०) से नकारोत्तरवर्ती अ को ए, "ए