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कातन्त्रव्याकरणम्
४२२ का प्रयोग पाणिनीय व्याकरण में भी प्रयुक्त है - "इदमोऽन्वादेशे० "(अ० २। ४।३२)। जैसे 'एतं व्याकरणम् अध्यापय, अथो एनं वेदमध्यापय' । इसे व्याकरण पढ़ाओ और इसके पश्चात् इसे वेद पढ़ाओ । 'इमं घटमानय, अथो एनं परिवर्तय' । इस घड़े को ले आओ और इसके बाद इसे बदल दो । एतेन रात्रिरधीता, अथो एनेनाहरप्यधीतम्' । इसने रात्रि में पढ़ा और फिर इसने दिन में भी पढ़ा । 'एतयोः शोभनं शीलम्, एनयोश्च प्रभूतं स्वम्' । इन दोनों का आचरण प्रशंसनीय है और इनके पास पुष्कल धनसम्पत्ति भी है ।
अन्वादेश में पाणिनि ने भी इदम् और एतद् को 'एन' आदेश किया है- "द्वितीयाटौस्वेनः"(अ०२।४।३४) । इसमें "इदमोऽन्वादेशे०" (अ०२।४।३२) सूत्र से 'अन्वादेशे' पद की अनुवृत्ति की जाती है।
[रूपसिद्धि] १. एतं व्याकरणमध्यापय, अथो एनं वेदमध्यापय । २. इमं घटमानय, अथो एनं परिवर्तय । ३. एतेन रात्रिरधीता, अथो एनेनाहरप्यधीतम् । ४. एतयोः शोभनं शीलम्, एनयोश्च प्रभूतं स्वम् ।
प्रथम वाक्य में जिसे व्याकरण पढ़ाने के लिए कहा गया है उसे ही पुनः वेद पढ़ाने भी बात कही गई है । द्वितीय वाक्य में जिस धड़े को लाना है उसे ही बदलना भी है | तृतीय वाक्य में जिसने रात्रि में अध्ययन किया है. उसो ने दिन में भी और चतुर्थ वाक्य मे जिनका आचरण प्रशंसनीय बताया गया है, उन्हीं के पास पर्याप्त धनसम्पत्ति का होना भी कहा गया है। इनमें से केवल द्वितीय वाक्य में 'इदम्' को 'एन' तथा प्रथम, तृतीय, चतुर्थ वाक्यों में 'एतद्' शब्द को 'एन' आदेश किया गया है, जिसके फलस्वरूप ‘एनम्' (द्वि० - ए० व०), 'एनम्' (द्वि० - ए० व०) एनेन' (तृ० - ए० व०) तथा 'एनयोः ' (No - द्वि-व०) प्रयोग सिद्ध होते हैं।
१. एनम् । एतद् + अम्, इदम् + अम् | “त्यदादीनाम विभक्तौ" (२।३।२९) से द्-म् को अ, “अकारे लोगम्' (२।१।१७) से तकार-दकारोतरवर्ती अकार का लोप, प्रकृत सूत्र से 'एत-इद' को 'एन' तथा “अम्शसोरादिलॊपम्" (२।१।४७) से 'अम्' के अकार का लोप ।