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नामचतुष्टयाप्याये प्रथमो धातुपादः जलदुःखमिति । नन्वित्यादि । ननु भिन्नविषयत्वात् कथं बाध्यबाधकत्वम्, तथाहि अग्निकार्य प्रकृतौ विधीयते नदीकार्यं च विभक्तिस्थाने इति, नैवम् । यस्यां प्रकृतावग्निकार्यमेव विधीयते व्यपदेशातिदेशपक्षे तस्यामेव नदीत्वं विधीयते इति ।। १३६।
[समीक्षा]
'अग्नि +डे, पटु +डे, बुद्धि + डे, धेनु + डे' इस स्थिति में कातन्त्रकार लिङ्गस्थ इकार को एकार तथा उकार को ओकार आदेश करके अग्नये, पटवे, बुद्धये, धेनवे' रूप सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने संज्ञानिर्देशपूर्वक गुणविधान किया है- "ठिति" (अ०७।३।१११)। एकारादिविधान स्पष्टावबोधार्थ तथा संज्ञापूर्वक निर्देश सुखार्थ माना जाता है। अतः उभयत्र साम्य ही है।
___ व्याख्याकारों ने 'डे' इस अविकृत सूत्रनिर्देश के आधार पर कहा है कि जहाँ कोई विकार हो जाता है वहाँ सूत्र प्रवृत्त नहीं होता। अतः 'बुद्ध्यै, धेन्वै' में इ को ए एवं उ को ओ आदेश नहीं हुआ है।
[रूपसिद्धि]
१. अग्नये। अग्नि +3 | प्रकृत सूत्र द्वारा लिङ्गसंज्ञक ‘अग्नि' शब्द के अन्त्यावयव इ को ए तथा "ए अय्" (१।२।१२) से 'अय्' आदेश ।
२. पटवे। पटु+। पूर्ववत् उ को ओ तथा “ओ अन्” (१।२।१४) से अव् आदेश।
३-४. बुद्धये। बुद्धि + डे । पेनवे । धेनु + डे । पूर्ववत् इ को ए तथा उ को ओ आदेश ।।१३६।
१३७. सिङसोरलोपश्च [२।१।५८] [सूत्रार्य]
अग्निसंज्ञक शब्द से परवर्ती ङसि-ङस्प्रत्ययघटित अकार का लोप, इ को ए तथा उ को ओ आदेश होता है ।।१३७।
[दु० वृ०]
अग्निसंज्ञकात् परस्य ङसिङसोरकारस्य लोपो भवति, इरेच्च, उरोच्च । अग्नेः, अग्नेः। धेनोः, पेनोः ।।१३७।