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नामचतुष्टयाध्याये द्वितीयः सखिपादः
२५३ (२।६।८) से द्वितीया तत्पुरुष समास, "तत्स्था लोप्या विभक्तयः” (२।६।२) से 'दिव् +अम् + गत + सि में अम् तथा सि- विभक्ति का लोप, प्रकृत सूत्र से वकार को उकार, १।२।८ से इकार को यकार, “धातुविभक्तिवर्जनर्थवल्लिङ्गम्' (२।१। १) से 'धुगत' की लिङ्गसंज्ञा, प्रथमाविभक्ति - एकवचन में 'सि' प्रत्यय तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से स् को विसर्गादेश ।।
४. पुत्वम्। दिव् + त्व । 'दिवो भावः' इस लौकिक विग्रह में "तत्वौ भावे" (२।६।१३) से 'त्व' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से व् को उ , लिङ्गसंज्ञा, सि-प्रत्यय, सि - लोप तथा “अकारादसंबुद्धौ मुश्च" (२।२।८) से 'मु' आगम ।। १८१।
१८२. औ सौ [२।२।२६] [सूत्रार्थ]
'सि' प्रत्यय के पर में रहने पर 'दिव्' शब्दघटित वकार को उकारादेश होता है ।। १८२।
[दु० वृ०] दिवो वकारस्यौर्भवति सौ परे । द्यौः, हे द्यौः ।। १८२ । [दु० टी०]
औ० । उत्त्वस्यापवादोऽयम् ।इहापि पूर्ववद् व्याख्येयम् ।स्वरादेशत्वान्नित्यत्वाच्च औत्वे कृते सिलोपो न भवति, स्थानिवदादेशो ह्यवर्णविधाविति न्यायात् । वर्णाश्रिते विधौ स्थानिवद्भावो न दृश्यते ।। १८२ ।
[समीक्षा]
'दिव् + सि' इस अवस्था में कातन्त्रकार तथा पाणिनि दोनों वकार को औकारादेश करके 'द्यौः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं | पाणिनि का सूत्र है "दिव औत्" (अ० ७।१।८४) । अतः उभयत्र प्रक्रियासाम्य है।
[रूपसिद्धि]
१. यौः। दिव् + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा वकार को औकार, "इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः” (१।२।८) से इकार को यकार तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से विसर्गादेश ।