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नामचतुष्टयाध्याये द्वितीयः सखिपादः
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[ रूपसिद्धि]
१. राज्ञः । राजन् + शस् । प्रकृत सूत्र से 'अन्' के अकार का लोप, "तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गी" (२|४ |४६ ) से न् को ञ्- आदेश, 'ज् + ञ्' संयोग से ज्ञ तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः” (२३ | ६३ ) से स् को विसर्ग |
२. राज्ञा । राजन् + टा । प्रकृत सूत्र से 'अन्' के अकार का लोप, " तवर्गश्चटवर्गयोगे चटवर्गी” (२ ।४ । ४६ ) से नू को ञ् आदेश तथा 'ज् + ञ्' संयोग सेज्ञ् ।
३. दध्नः । दधि + शस् । “अस्थिदघिसक्थ्यक्ष्णामन्नन्तष्टादौ” (२।२।१३) से इको अनू, प्रकृत सूत्र से 'अन्' के अकार का लोप तथा सकार को विसगदिश । ४. दध्ना । दधि + टा । " अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामन्नन्तष्टादी” (२|२| १३) से इ को 'अन्' तथा प्रकृत सूत्र द्वारा अकार का लोप ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि 'दध्नः, दध्ना' में अकारलोप होने पर "भुटां तृतीयः " . (२|३ | ६०) से धकार के स्थान में तृतीय वर्ण दकार प्राप्त होता है, उसके निवारणार्थ सूत्र में कहा गया है - 'अलोपो ऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ' । अर्थात् जिस 'अन्' के अकार का लोप होता है, यदि उससे पूर्व की कोई विधि प्राप्त हो तो वहाँ लुप्त अकार का अलुप्तवद्भाव हो जाता है। जिसके फलस्वरूप धकार को दकारादेश नहीं होने पाता है ।
५. प्रतिदीनः । प्रतिदीवन् + शस् । प्रकृत सूत्र से अकार का लोप तथा सकार को विसगदिश ।
६. प्रतिदीन्ना । प्रतिदीवन् + टा । प्रकृत सूत्र द्वारा 'अन्' के अकार का लोप यहाँ भी लुप्त अकार का अलुप्तवद्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप "च्छ्वोः शूटी पञ्चमे च" (४|१ |५६ ) से वकार को 'ऊट' आदेश नहीं हो पाता है । २१०. ईड्योर्वा [२।२।५४]
[सूत्रार्थ]
'ई' तथा 'ङि' प्रत्ययों के परे रहते संयोगसंज्ञक 'व्-म्' से परवर्ती न होने पर 'अन्' के अकार का वैकल्पिक लोप होता है । यदि उससे पूर्ववर्ण की कोई विधि प्राप्त हो तो उसका अलुप्तवद्भाव भी होता है ।। २१० ।