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कातन्वव्याकरणम्
[समीक्षा]
‘पन्थि न सि, मन्थि + सि, ऋभुक्षि + सि' इस अवस्था में कातन्त्रकार अन्तिम वर्ण इ के स्थान में आ आदेश करके 'पन्थाः, मन्थाः, ऋभुक्षाः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं। पाणिनीय व्याकरण में 'पथिन्, मथिन्, ऋभुक्षिन्' प्रातिपदिक माने गए हैं, उनसे सु-प्रत्यय आने पर "पथिमध्यभुक्षामात्" (अ०७।१।८५) से न को आ, "इतोऽत् सर्वनामस्थाने" (अ० ७।१।८६) से इ को अ (पथ + आ) “यो न्यः" (अ०७।१।८७) से थ् को न्थ तथा सवर्णदीर्घ आदेश होकर ही उक्त रूप सिद्ध होते हैं । इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया तथा सूत्ररचना गौरवाधायक ही कही जा सकती है।
[रूपसिद्धि]
१. पन्थाः, हे पन्थाः! । पन्थि + सि, हे पन्थि +सि । प्रकृत सूत्र से इकार को आकार तथा "रफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसगदिश ।
२. मन्थाः, हे मन्याः! । मन्थि + सि, हे मन्थि + सि । प्रकृति सूत्र से इकार को आकार तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसगदिश |
३. ऋभुक्षाः, हे ऋभुक्षाः! । ऋभुक्षि + सि, हे ऋभुक्षि + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा इकार को आकार तथा "रेफसोविसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसगदिश ।। १९१।
१९२. अनन्तो घुटि [२।२।३६] [सूत्रार्थ]
घुट्संज्ञक प्रत्यय के परवर्ती होने पर ‘पन्थि - मन्धि-ऋभुक्षि' शब्दों के अन्तिम वर्ण को 'अन्' आदेश होता है ।। १९२ |
[दु० वृ०] पथ्यादीनामन्तोऽन् भवति घुटि परे । पन्थानौ, मन्थानौ, ऋभुक्षाणौ ।। १९२ । [दु० टी०]
अन० । सावात्वेनाघ्रातत्वाच्छेषे घुटि विधिरयं 'सुपन्थानि वनानि' इत्यत्र परत्वादना नुर्बाध्यते । घुटीति किम्? सुपथी कुले । एवं घुटीति सिद्धे अन्तग्रहणमु