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नामचतुष्टयाप्याये प्रथमो धातुपादः [समीक्षा]
'कर्तृ + औ, कर्तृ + जस्' इस अवस्था में कातन्त्रकार तृच्प्रत्ययघटित 'ऋ' के स्थान में 'आर्' आदेश करके 'कर्तारौ, कर्तारः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं, जबकि पाणिनि को इनके साधनार्थ 'गुण, रपर तथा दीर्घ' ये तीन कार्य करने पड़ते है - "ऋतो डिसर्वनामस्थानयोः, उरण रपरः, अन्तृवस्वसृनप्तृनेष्ट्रत्वष्ट्रक्षतृहोतृपोतृप्रशास्तॄणाम्" (अ० ७।३।१०; ११११५१; ६।४।११)। इस प्रकार कातन्त्रीय प्रक्रियालाघव समादरणीय है।
व्याख्याकारों ने सूत्रपठित 'धातोः, तृशब्दस्य' इन पदों का सार्थक्य सिद्ध किया है। जैसे 'धातोः' पद के पाठाभाव में ‘यत' धातु से 'ऋन्' प्रत्ययान्त शब्द 'यातृ' से भी ‘आर्' आदेश प्रवृत्त हो जाता । परन्तु यहाँ 'तृ' में तकार धातुघटित है और ऋकार प्रत्ययघटित । अतः धातु से 'तृ' के विहित न होने से 'आर' आदेश नहीं होता । इसी प्रकार 'तृशब्दस्य' का पाठ न होने पर नपूर्वक 'नन्द्' धातु से ऋनप्रत्ययान्त 'ननान्द्र' शब्द में भी 'आर' आदेश हो जाता, परन्तु उक्त पाठानुसार यहाँ आर् आदेश नहीं होता | एक श्लोक में उन शब्दों को गिनाया गया है, जो वस्तुतः तृप्रत्ययान्त नहीं हैं, परन्तु प्रतीत होते हैं
पिता माता ननान्दा ना सव्येष्ट्रभातृयातरः।
जामाता दुहिता देवा न तृप्रत्ययभागिनः॥ [रूपसिद्धि]
१. कर्तारी । कर्तृ + औ । 'कृ' धातु से "वुण्तृचौ" (४।२।४७) सूत्र द्वारा तृच्प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से तृप्रत्ययघटित 'ऋ' को आर् आदेश ।
२. कर्तारः। कर्तृ + जस् । पूर्ववत् 'तृच्' प्रत्यय तथा 'ऋ' को आर्' आदेश ।। १४७।
१४८. स्वस्रादीनां च [२।१।६९] [सूत्रार्थ]
घुटसंज्ञक (सि, औ, जस्, अम्, औ, नपुंसकलिङ्ग में जस् - शस् प्रत्यय) प्रत्ययों के पर में रहने पर स्वस्रादिगणपठित शब्दों के अन्त्यावयव ऋकार को 'आर्' आदेश होता है ।। १४८।