________________
१७८
कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
'त्रि + आम्' इस स्थिति में कातन्त्रकार तथा पाणिनि दोनों ही 'त्रि' को 'त्रय' आदेश करके 'त्रयाणाम्' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । अन्तर यह है कि कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र द्वारा 'त्रय' आदेश तथा 'नु' आगम किया है
और पाणिनि ने दो कार्यों के लिए दो पृथक्-पृथक् सूत्र बनाए हैं - "हस्वनयापो नुद, स्त्रयः" (अ० ७।१।५४, ५३)। अतः कार्यसंख्या की दृष्टि से साम्य रहने पर भी सूत्र-भेद के कारण गौरव-लाघव अवश्य ही परिलक्षित होता है।
[रूपसिदि]
१. त्रयाणाम् । त्रि + आम् । प्रकृत सूत्र से 'त्रि' को 'त्रय' आदेश, नु-आगम, "अकारो दीर्घं घोषवति" (२।१।१४) से दीर्घ तथा "रश्वर्णेभ्यः०" (२।४।४८) से नकार को णकार आदेश ।
२. परमत्रयाणाम्। परमत्रि + आम् | परमाश्च ते त्रयश्च । कर्मधारय समास । प्रकृत सूत्र से 'त्रय' आदेश, नु-आगम, दीर्घ तथा नकार को णकारादेश ।।१५२।
१५३. चतुरः [२।१।७४] [सूत्रार्थ]
षष्ठीविभक्ति - बहुवचन 'आम्' प्रत्यय के पर में रहने पर 'चत्वार' शब्द से 'नु' आगम होता है ।। १५३।
[दु० वृ०]
'चत्वार्' इत्येतस्याऽऽमि परे नुरागमो भवति । चतुर्णाम् । अप्रधानादेवअतिचतुराम् ।। १५३।
[वि० प०]
चतुरः। इह पूर्वत्र च बहुत्वेऽप्येकवचनम्, शब्दप्रधानत्वाद् निर्देशस्य । अप्रधानादेवेति चतुरोऽतिक्रान्तानामिति विग्रहे गौणत्वादित्यर्थः ।। १५३।