________________
नामचतुष्टया याये बितीयः सखिपादः (२।१। ७२) इति नुरागमः। अन्यत्र “ईदूतोरियुवी स्वरे" (२।२।५६) इति इयादेशः । तथा 'भ्रूणाम्, भ्रुवाम्' इति “अमेहू:" (२।३०) औणादिकः । 'पूर्षातुवत्" (२।२।६०) इति धातुवद्भावादुस्थानो भवति । स्त्र्याख्यावित्यादि आख्याग्रहणं नित्यस्त्रीविषयार्थम्, तेन ‘यवक्रियाम्, कटप्रुवां स्त्रीणाम्' इत्यत्रापि न भवति ।।१६०।
[क० च०]
स्त्र्याख्यौ० । अप्राप्ते विभाषेयं यस्मात् पूर्वं नदीत्वस्य सर्वत्र व्यावर्तनात् प्राप्तेरभावः ।।१६०।
[समीक्षा
'श्री + आम्, भ्रू+आम्' इस स्थिति में कातन्त्रकार ने वैकल्पिक नदीवद्भाव करके (नु-आगम तथा इयादेश) 'श्रीणाम्-श्रियाम्' एवं 'भ्रूणाम् - ध्रुवाम्' (नु-आगम तथा उवादेश) दो-दो रूप.सिद्ध किए हैं । पाणिनि ने इनके साधनार्थ नदीसंज्ञा का वैकल्पिक निषेध किया है- “नेयडवस्थानावस्त्री, वाऽऽमि" (अ० १।४।४, ५)। इस प्रकार उभयत्र साम्य है।
[रूपसिद्धि
१. श्रीणाम्, श्रियाम् । श्री + आम् । 'श्री' शब्दगत ईकार नित्य स्त्रीत्वअर्थाभिधायक है तथा इसके स्थान में इय् – आदेश (श्रियौ, श्रियः) भी होता है, अतः प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक नदीवद्भाव । नदीवद्भावपक्ष में “आमि च नुः" (२।१।७२) से 'नु' आगम, एवं “रवर्णेभ्यः"(२।४।४८)से नकार को णकारादेश | नदीवद्भाव न होने के पक्ष में "ईदूतोरियुवी स्वरे" (२।२।५६) से ईकार को इयादेश करने पर 'श्रियाम्' शब्दरूप बनता है।
२. भ्रूणाम्-भूवाम् । भ्रू+आम् । 'भ्रू' शब्दगत ऊकार नित्य स्त्रीत्वार्थाभिधायक है तथा इसके स्थान में उवादेश होता है । अतः प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक नदीवद्भाव । नदीवद्भावपक्ष में 'नु' आगम एवं नकार को णकारादेश - 'भ्रूणाम्' । नदीवभाव न होने पर "पूर्धातुवत्" (२।२।६०) से धातुवद्भाव एवं ऊकार को उवादेश ।। १६०।