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कातन्त्रयाकरणम्
[समीक्षा]
'सखि + औ, सखि + जस्' इस अवस्था में 'इ' को 'ऐ' आदेश तथा 'ऐ' को 'आय' करके कातन्त्रकार 'सखायौ, सखायः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने 'औ' आदि कुछ प्रत्ययों में णिद्वद्भाव मानकर वृद्धि करके उक्त रूप सिद्ध किए हैं । पाणिनि का सूत्र है - "सख्युरसंबुद्धौ" (अ० ७।१।९२)।
इस प्रकार अतिदेश की व्यवस्था के विना ही सिद्धि प्रदर्शित करने वाले कातन्त्र का लाघव स्पष्ट है।
[रूपसिद्धि]
१. सखायौ। सखि +औ । प्रकृत सूत्र द्वारा 'इ' को 'ऐ' आदेश तथा "ऐ आय" (१।२।१३) से ऐकार को 'आय' आदेश |
२. सखायः। सखि + जस् । प्रकृत सूत्र से इकार को ऐकार, "ऐ आय" (१।२।१३) से आय आदेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसर्ग ।।१८०।
१८१. दिव उद् व्याने [२।२।२५] [सूत्रार्थ]
व्यञ्जन वर्ण के परवर्ती होने पर 'दिव्' शब्दस्थ वकार को उकारादेश होता है ।।११।
[दु० वृ०]
दिवो वकारस्योद् भवति व्यञ्जने परे । धुभ्याम्, धुषु, धुगतः, द्युत्वम् । ये न स्याद् - दिव्यम् ।।१८१।
[दु० टी०]
दिव० । एकवर्णत्वादन्तस्य वकारस्य भविष्यति 'येन विधिस्तदन्तस्य' (कलाप०, पृ०२२२, क्रम० ६४) इति । अतिधुभ्याम्, परमधुभ्याम् । यत्वं भवत्येव । स्वरानन्तर्ये 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरछे' (कात० प० ३३) इत्यनित्येयम् । अनेन न्यायेन पूर्वविधि प्रति स्वरादेशोऽपि न स्थानिवदिति । अथ 'अक्षैर्दीव्यति' इति क्विपि कृते अक्षद्युभ्याम्,
इत्यनित्येयम् । अभवत्येव । स्वरान
ति । अथ