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________________ २५० कातन्त्रयाकरणम् [समीक्षा] 'सखि + औ, सखि + जस्' इस अवस्था में 'इ' को 'ऐ' आदेश तथा 'ऐ' को 'आय' करके कातन्त्रकार 'सखायौ, सखायः' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने 'औ' आदि कुछ प्रत्ययों में णिद्वद्भाव मानकर वृद्धि करके उक्त रूप सिद्ध किए हैं । पाणिनि का सूत्र है - "सख्युरसंबुद्धौ" (अ० ७।१।९२)। इस प्रकार अतिदेश की व्यवस्था के विना ही सिद्धि प्रदर्शित करने वाले कातन्त्र का लाघव स्पष्ट है। [रूपसिद्धि] १. सखायौ। सखि +औ । प्रकृत सूत्र द्वारा 'इ' को 'ऐ' आदेश तथा "ऐ आय" (१।२।१३) से ऐकार को 'आय' आदेश | २. सखायः। सखि + जस् । प्रकृत सूत्र से इकार को ऐकार, "ऐ आय" (१।२।१३) से आय आदेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसर्ग ।।१८०। १८१. दिव उद् व्याने [२।२।२५] [सूत्रार्थ] व्यञ्जन वर्ण के परवर्ती होने पर 'दिव्' शब्दस्थ वकार को उकारादेश होता है ।।११। [दु० वृ०] दिवो वकारस्योद् भवति व्यञ्जने परे । धुभ्याम्, धुषु, धुगतः, द्युत्वम् । ये न स्याद् - दिव्यम् ।।१८१। [दु० टी०] दिव० । एकवर्णत्वादन्तस्य वकारस्य भविष्यति 'येन विधिस्तदन्तस्य' (कलाप०, पृ०२२२, क्रम० ६४) इति । अतिधुभ्याम्, परमधुभ्याम् । यत्वं भवत्येव । स्वरानन्तर्ये 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरछे' (कात० प० ३३) इत्यनित्येयम् । अनेन न्यायेन पूर्वविधि प्रति स्वरादेशोऽपि न स्थानिवदिति । अथ 'अक्षैर्दीव्यति' इति क्विपि कृते अक्षद्युभ्याम्, इत्यनित्येयम् । अभवत्येव । स्वरान ति । अथ
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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