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नामवतुष्टयाण्याये बितीयः सविपादः परो लोप्यः" (१।२।८) से इकार को यकारादेश - 'बुद्ध्यै' । नदीवद्भाव के अभाव में "इदुदग्निः " (२।१।८) से अग्निसंज्ञा, "हे" (२।१।५७) से इकार को एकार तथा "ए अ" (१।२।१२) से ए को अयादेश ।
२. पेन्नै, पेनवे। धेनु + डे । प्रकृत सूत्र से नदीवद्भाव, “नया ऐ आसासाम्" (२।१।४५) से डे को 'ऐ' आदेश तथा "बमुवर्णः" (१।२।९) से 'उ' को व्'धेन्वै' । नदीवद्भाव के न होने पर अग्निसंज्ञा, "हे" (२।१।५७) से उकार को ओकार तथा "ओ अन्” (१।२।१४) से ओ का अवादेश - 'धेनवे'।
३. श्रिय, श्रिये। श्री + डे । प्रकृत सूत्र से नदीवद्भाव, “नया ऐ आसासाम्" (२।१।४५) से 'डे' को 'ऐ' तथा "ईदूतोरियुवी स्वरे" (२।२।५६) से ईकार को इयादेश-'श्रियै' । पक्ष में 'ऐ' आदेश प्रवृत्त नहीं होता, अतः केवल इयादेश होने पर 'श्रिये' शब्दरूप ।
___४. भूवै, ध्रुवे। भ्रू+ । प्रकृत सूत्र द्वारा नदीवभाव, “नया ऐ आसासाम्" (२।१।४५) से 'डे' को 'ऐ', "पूर्धातुक्त्" (२।२।६०) से धातुवद्भाव तथा "ईदूतोरिएवी स्वरे" (२।२।५६) से उवादेश-'ध्रुवै' । नदीवद्भाव के न होने पर "पूतुबत्" (२।२।६०) से धातुवद्भाव एवं उवादेश-'ध्रुवे' ।।१६१ ।
१६२. नपुंसकात् स्यमोर्लोपो न च तदुक्तम् [२।२।६] [सूत्रार्थ]
नपुंसकलिङ्ग वाले शब्दों से परवर्ती सि एवं अम् प्रत्ययों का लोप तथा प्रत्ययलक्षण मानकर होने वाले तत्प्रयुक्त कार्यों का निषेध भी होता है ।।१६२।
[दु० वृ०]
नपुंसकलिङ्गात् परयोः स्यमोर्लोपो भवति, तदुक्तं च कार्यं न भवति । पयः, पयः। तत्, तत्। सुसखि, सुसखि। नपुंसकादिति किम् ? सुपया गौः ।। १६२।
[दु० टी०]
नपुं० । स्त्रीपुनपुंसकानि लोकलिङ्गानुशासनगम्यानीति वक्ष्यति । नपुंसकार्यविशिष्टत्वादुपचारान्नाम च नपुंसकं सापेक्षत्वात् प्रकृतेनास्य संबन्धः । सिश्च अम् च