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कातन्त्रव्याकरणम्
आगम करके इन रूपों की सिद्धि की है । अपनी-अपनी प्रक्रिया की भिन्नता के कारण पाणिनि ने उकार अनुबन्ध के साथ 'म्' अनुबन्ध की भी योजना की है, जबकि कातन्त्र में केवल उकार अनुबन्ध ही दृष्ट है ।
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व्याख्याकारों के अनुसार ‘सुकुञ्चि, गोमन्ति, सुवलिग' में धुट् का व्यवधान होने से 'नु' आगम नहीं होता है। 'गोरङ्क्षि' में धुड्जाति होने के कारण 'नु' आगम उपपन्न होता है । 'बहूर्जि' में वैकल्पिक 'नु' आगम होने के कारण 'बहूर्जि' रूप भी निष्पन्न होता है ।
[रूपसिद्धि]
१ . पद्मानि । पद्म + जस्, शस् । प्रकृत सूत्र से स्वर ( मकारोत्तरवर्ती) अकार
.
के बाद 'नु' आगम तथा दीर्घ आदेश ।
२. पयांसि । पयस् + जस्, शस् । प्रकृत सूत्र द्वारा यहाँ धुट् सकार से पूर्व 'नु' आगम की योजना, दीर्घ तथा अनुस्वारादेश |
३. सुकर्तृणि। सुकर्तृ + जस्, शस् । शोभनाः कर्तारो येषां तानि । समास, जस्-शस् को शि-आदेश, उसकी 'घुट्' संज्ञा, 'नु' आगम, “घुटि चासंबुद्धौ” (२।२।१७) से दीर्घ' तथा नकार को णकारादेश |
४. सुसखीनि । सुसखि + जस्, शस् । शोभनाः सखायो येषां तानि । समास । जस्- शस् को ‘शि' आदेश, उसकी घुट्संज्ञा, 'नु' आगम तथा दीर्घ आदेश || १६७। १६८. नामिनः स्वरे [ २।२।१२]
[सूत्रार्थ]
नपुंसकलिङ्ग में स्वर के परवर्ती होने पर 'नाम्यन्त लिङ्ग = प्रातिपदिक से 'नु' आगम होता है || १६८ |
[दु० वृ०]
नाम्यन्तान्नपुंसकलिङ्गात् स्वरे परे नुरागमो भवति । बारिणी, बारिणे । नामिनः स्वर इति किम् ? कुलयोः ।। १६८ ।
१. नामी = अवर्ण को छोड़कर शेष १२ स्वर = इ, ई । उ, ऊ । ऋ, ॠ । लृ, लृ । ए, ऐ । ओ, " स्वरोऽवर्णवर्जी नामी” (१।१७) ।। १६८ ।
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