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नामचतुष्टयाच्यापे द्वितीयः सखिपादः [समीक्षा]
'उशनस् + सि, पुरुदंशस् + सि, अनेहस् + सि' इस अवस्था में दोनों ही आचार्य अन्त्य वर्ण सकार के स्थान में 'अन्' आदेश करके उशना, पुरुदंशा, अनेहा' प्रयोग सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने इस आदेश के साथ 'अ' तथा '' अनुबन्ध भी लगाए हैं। इनमें अकार तो उच्चारणार्थ है तथा डकार "डिच्च" (अ० १।१।५३) इस परिभाषासूत्र के प्रवृत्त्यर्थ । अस्तु, कातन्त्रकार की प्रक्रिया में स्पष्टतया लाघव विद्यमान है, क्योंकि यहाँ प्रकृत सूत्र में ही 'अन्तः' पद पठित है। ____ आचार्य व्याप्रभूति आदि के मतानुसार सम्बुद्धि में 'उशनस्' शब्द के तीन रूप बनते हैं-'हे उशनः ! हे उशनन् ! हे उशन !' । व्याख्याकार 'अन्' की अपेक्षा 'न्' आदेश का पक्ष प्रस्तुत करते हैं ।
[रूपसिद्धि]
१. उशना । उशनस् + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा 'स्' को 'अन्' आदेश, “अकारे लोपम्" (२।१।१७) से नकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, "घुटि चासंबुद्धौ" (२।२।१७) से अकार को दीर्घ, "यानाच्च" (२।१।४९) से सि-लोप तथा "लिङ्गान्तनकारस्य" (२।३।५६) से न-लोप |
२. पुरुदंशा । पुरुदंशस् + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा ‘स्' को 'अन्' आदेश, “अकारे लोपम्" (२।१।१७) से शकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, “घुटि चासंबुद्धौ" (२।२।१७) से अकार को दीर्घ, "यजनाच्च" (२।१।४९) से सि - लोप तथा “लिङ्गान्तनकारस्य" (२।३।५६) से न - लोप ।
३. अनेहा । अनेहस् + सि । पूर्ववत् ‘स्' को 'अन्' आदेश, पूर्ववर्ती अकार का लोप, 'अन्' आदेशस्थ अकार को दीर्घ, सिप्रत्यय एवं नकार का लोप ।। १७८।
१७९. सख्युश्च [२।२।२३] [सूत्रार्थ]
'सखि' शब्द के अन्त्य वर्ण 'इ' के स्थान में 'अन्' आदेश होता है, संबुद्धिभिन्न 'सि' प्रत्यय के पर में रहने पर ।। १७९।।