SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४७ नामचतुष्टयाच्यापे द्वितीयः सखिपादः [समीक्षा] 'उशनस् + सि, पुरुदंशस् + सि, अनेहस् + सि' इस अवस्था में दोनों ही आचार्य अन्त्य वर्ण सकार के स्थान में 'अन्' आदेश करके उशना, पुरुदंशा, अनेहा' प्रयोग सिद्ध करते हैं । पाणिनि ने इस आदेश के साथ 'अ' तथा '' अनुबन्ध भी लगाए हैं। इनमें अकार तो उच्चारणार्थ है तथा डकार "डिच्च" (अ० १।१।५३) इस परिभाषासूत्र के प्रवृत्त्यर्थ । अस्तु, कातन्त्रकार की प्रक्रिया में स्पष्टतया लाघव विद्यमान है, क्योंकि यहाँ प्रकृत सूत्र में ही 'अन्तः' पद पठित है। ____ आचार्य व्याप्रभूति आदि के मतानुसार सम्बुद्धि में 'उशनस्' शब्द के तीन रूप बनते हैं-'हे उशनः ! हे उशनन् ! हे उशन !' । व्याख्याकार 'अन्' की अपेक्षा 'न्' आदेश का पक्ष प्रस्तुत करते हैं । [रूपसिद्धि] १. उशना । उशनस् + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा 'स्' को 'अन्' आदेश, “अकारे लोपम्" (२।१।१७) से नकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, "घुटि चासंबुद्धौ" (२।२।१७) से अकार को दीर्घ, "यानाच्च" (२।१।४९) से सि-लोप तथा "लिङ्गान्तनकारस्य" (२।३।५६) से न-लोप | २. पुरुदंशा । पुरुदंशस् + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा ‘स्' को 'अन्' आदेश, “अकारे लोपम्" (२।१।१७) से शकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, “घुटि चासंबुद्धौ" (२।२।१७) से अकार को दीर्घ, "यजनाच्च" (२।१।४९) से सि - लोप तथा “लिङ्गान्तनकारस्य" (२।३।५६) से न - लोप । ३. अनेहा । अनेहस् + सि । पूर्ववत् ‘स्' को 'अन्' आदेश, पूर्ववर्ती अकार का लोप, 'अन्' आदेशस्थ अकार को दीर्घ, सिप्रत्यय एवं नकार का लोप ।। १७८। १७९. सख्युश्च [२।२।२३] [सूत्रार्थ] 'सखि' शब्द के अन्त्य वर्ण 'इ' के स्थान में 'अन्' आदेश होता है, संबुद्धिभिन्न 'सि' प्रत्यय के पर में रहने पर ।। १७९।।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy