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नामचतुष्टयाध्याये प्रथमो धातुपादः
१३३ 'वाक्, सुपयाः' इत्यादौ आदिधुटो लोप एव दोषो भवतु । तत् कथं तडिद्' इत्यादौ आदिधुटो लोपप्रसङ्ग इत्याह - लिङ्गं चेत्यादि वृत्तिः। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे । वररुचिस्तु चकारात् पूर्वसूत्रस्यानित्यता,तेन 'सुमङ्गलीरियं वधूः' (ऋ० १०।८५।३३) इति ब्रूते । तन्न, अपाणिनीयत्वात् ।। १२८ ।
[समीक्षा]
'वाच् + सि, तडित् + सि' इस अवस्था में व्यञ्जनवर्ण 'च्-त्' से परवर्ती सिप्रत्यय का लोप करके कातन्त्रकार ने 'वाक्, तडित्' आदि शब्दों की सिद्धि की है । पाणिनि का भी ऐसा ही विधान है - "हल्ल्याभ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्" (अ० ६।१।६८)। पाणिनि का 'हल्' पदव्यवहार कृत्रिमता तथा कातन्त्रकार का व्यञ्जनपदव्यवहार लोकव्यहारप्रसिद्धि को सूचित करता है
व्याख्याकारों के पूर्वपक्षानुसार लोपसूत्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, संयोगान्तलोप से ही अभीष्टसिद्धि हो जाएगी । इसका समाधान करते हुए कहा गया है किसंयोगान्तलोप को बाधकर "संयोगादे(ट:"(२।३।५५) से संयोगादिलोप होने लगेगा |अथवा संयोगान्तलोप में लिङ्ग का अधिकार है, 'सि' प्रत्यय की लिङ्गसंज्ञा नहीं होती । अतः संयोगान्तलोप न होने से अभीष्टसिद्धि नहीं होगी । अतः सूत्रकार ने प्रकृत सूत्र बनाया है।
[रूपसिद्धि]
१. वाक् । वाच् + सि । प्रकृत सूत्र से 'सि' का लोप, "चवर्गदृगादीनां च" (२।३।४८) से च को ग् तथा "वा विरामे" (२।३।६२) से ग् को क् आदेश । २. तडित् । तडित् + सि । प्रकृत सूत्र से 'सि' का लोप ||१२८।
१२९. अग्नेरमोऽकारः [२।१।५०] [सूत्रार्थ]
अग्निसंज्ञक से परवर्ती द्वितीयाविभक्ति- एकवचन ‘अम्' प्रत्यय के अकार का लोप होता है ।। १२९।