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कातन्त्रव्याकरणम्
[क० च०]
सि० । दीर्घबलादित्यादि । दीर्घबलात् सन्निपातलक्षणपरिभाषा न प्रवर्तते इति कथमुच्यते 'वर्णग्रहणे निमित्तत्वात्' (कात० प० ३२) इत्यनेनैव तस्य बाधितत्वात् ? सत्यम् । एवं योज्यते पनी - दीर्घबलात् पूर्वं "सिरात्" (२।१।२१) इत्यनेन आदादेशे कृते 'वर्णग्रहणे निमित्तत्वात्' (कात०प०३२) इत्यनेन सन्निपातलक्षणपरिभाषा न प्रवर्तत इति हेतोः पश्चाज्जरस् भवतीति ।। १००।
[समीक्षा]
'वृक्ष + ङसि' इस अवस्था में 'सि' (पञ्चमीविभक्ति एकवचन) को 'आत्' आदेश दोनों ही व्याकरणों में किया गया है । अन्तर यह है कि कातन्त्रकार तीन पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा 'सि' को 'आत्', 'ङस्' को 'स्य' तथा 'टा' को 'इन' आदेश करते हैं, जबकि पाणिनि ने एक ही सूत्र-द्वारा तीनों आदेशों का विधान किया है - "टाङसिङसामिनात्स्याः" (अ० ७।१।१२) । उसमें भी पाणिनीय क्रम की अपेक्षा कातन्त्रीयक्रम में विपर्यास है, क्योंकि वहाँ ङसि, ङस् और 'टा' प्रत्ययों के क्रमशः आदेश किए गए हैं।
कातन्त्र के इस क्रमव्यत्यास से व्याख्याकार यह ज्ञापित करते हैं कि 'पितृ' शब्द से द्वितीया-बहुवचन ‘शस्' प्रत्यय के भी परवर्ती होने पर ऋ को 'अर्' आदेश तथा 'उदधि-भिक्षु' शब्दों से भी ङस् को 'स्य' आदेश प्रवृत्त होगा और इस प्रकार पितृ - शब्द से द्वितीया-बहुवचन में भी 'पितरः' शब्द साधु होगा । ‘उदधि' शब्द से षष्ठी-एकवचन में उदधिष्य तथा भिक्षु शब्द से भिक्षुष्य शब्दरूप बनेगा ।
ऐसी मान्यता है कि सूत्रों की विचित्र रचना से आचार्य का विशेष अभिप्राय परिलक्षित होता है – “इङ्गितेनोन्मिषितेन महता वा सूत्रप्रबन्धनाचार्याणामभिप्रायो लक्ष्यते" (म० भा० ६।१।३७)।
व्याख्याकारों ने ‘अतिजर' शब्द से ‘ङसि' प्रत्यय में ‘अतिजरसात्' शब्दरूप साधु माना है | भाष्यकार तो 'अतिजरात्' रूप ही प्रामाणिक मानते हैं | व्याख्याकार विविध परिभाषावचनों का स्मरण करते हुए ‘अतिजरसात्' रूप की सिद्धि ‘आत्' आदेश के बाद ही जरसादेश करके घोषित करते हैं |