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नामचतुष्टयाध्याये प्रथमो धातुपादः
८७ इत्यादि । ननु कथमत्र स्वशब्दे सन्देहः । नानार्थता चेति । यावता स्वशब्दो ज्ञातौ पुंसि, धने नपुंसके वर्तते । सत्यम्, अल्पादीनां विकल्पपक्षे ज्ञात्यात्मीययोः समानरूपत्वात् सन्देहः स्यादिति श्लोके ज्ञातिपदोपादानम् । ननु ‘स्वम्' इति नपुंसकनिर्देशादेव ज्ञातौ न भविष्यति, किं ज्ञातिवर्जनेन । ज्ञातौ तु तस्य पुंस्त्वात्, यद् वा धनवचनोऽपि पुंलिङ्गः । तथा च कोशः- "स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं विष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने" (अ० को० ३।३।२११) इति ? सत्यम्, स्वमिति शब्दस्वरूपोऽयमित्यर्थो घटते । तथा च नपुंसकनिर्देशेऽपि 'स्वस्मै पुत्राय' इत्यादि प्रयोगः । तथा च नपुंसकवृत्ते सप्तम्या निर्देश इति साधुरिति नव्याः।अन्ये तु लिङ्गग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम' (कात० प० १७) इति न्यायाद् ज्ञात्यर्थस्यापि स्यादिति वर्जनम् ।। १०४।
[समीक्षा]
'सर्व + डे' इस अवस्था में दोनों ही वैयाकरण आचार्य 'डे' को 'स्मै' आदेश करके 'सर्वस्मै' शब्दरूप सिद्ध करते हैं । अतः आदेशविधान की दृष्टि से उभयत्र साम्य ही है । परन्तु गणपठित शब्दक्रम के अनुसार विशेषता यह है कि कातन्त्रकार 'सर्वादि' गण में 'द्वि' शब्द से पूर्व ही 'किम्' शब्द का पाठ करते हैं, इसके विपरीत पाणिनीय गण में 'किम्' शब्द का पाठ 'द्वि' शब्द के अनन्तर किया गया है | इसीलिए "किंसर्वनामबहुभ्योऽस्यादिभ्यः" (अ० ५।३।२) इस सूत्र में पाणिनि ने ट्यादिगण से अतिरिक्त 'किम्' शब्द पढ़ा है । यदि उसे पृथक् से न पढ़ा जाता तो ह्यादि गण के अन्तर्गत पठित होने के कारण उससे भी तसिल आदि प्रत्यय नहीं होते । इसके विपरीत कातन्त्र में 'द्वि' से पूर्व ही 'किम्' शब्द का पाठ होने से तसिल् आदि प्रत्ययों के विधायक सूत्र में 'किम्' शब्द का पाठ नहीं किया गया
है
विभक्तिसंज्ञा विज्ञेया वक्ष्यन्तेऽतः परं तु ये। अळ्यादेः सर्वनाम्नस्ते बहोश्चैव पराः स्मृताः॥ (कात० २।६।२४) इति।
कातन्त्रकार ने 'सर्वेषां नाम सर्वनाम' अर्थात् उन शब्दों की सर्वनाम संज्ञा प्रसिद्ध है, जो साकल्य अर्थ के प्रतिपादक हैं - इस प्रकार सर्वनाम की अन्वर्थता बताकर सर्वनामसंज्ञाविधायक सूत्र नहीं बनाया है । साकल्यार्थप्रतिपादक शब्दों की ही सर्वनाम संज्ञा माने जाने के कारण 'विश्व' आदि संज्ञाशब्दों में तथा 'विश्वमतिक्रान्तोऽतिविश्वः' आदि में सर्वनामसंज्ञाप्रयुक्त कार्य प्रवृत्त नहीं होते हैं - 'विश्वाय,