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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
"आगम उद्नुवन्यः स्वरादन्त्यात् परः" (२।१।६) सूत्र के निर्देशानुसार जो उदनुबन्ध आगम अन्तिम स्वर के पश्चात् होता है, वही तृतीयादि विभक्तियों के परवर्ती होने पर उन्हीं का आद्यवयवरूप होगा । जैसे - 'सर्वेषाम्' आदि में 'सु' आगम तथा 'वृक्षाणाम्' आदि में 'नु' आगम | पाणिनि इन आगमों को टित् कहते हैं - 'नुट्, सुट्, कुट्, गुट्' । तथा इनकी व्यवस्था के लिए उनका परिभाषासूत्र है - "आयन्तौ टकितौ" ( अ०१।१।४६) । वस्तुतः पाणिनि का अनुबन्धभेद यहाँ आवश्यक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि 'नुम्' आगम तृतीयादि विभक्तियों में नहीं होता तथा 'नुट्' आगम तृतीयादि विभक्तियों में ही होता है | इस प्रकार कातन्त्रीय व्यवस्था अधिक उचित कही जा सकती है |
[रूपसिद्धि]
१. सर्वस्यै। सर्वा + ऊ । “सर्वनाम्नस्तु ससवो हस्वपूर्वाश्च" (२।१।४३) सूत्र से 'सर्वा'शब्द को ह्रस्व, सु आगम तथा 'डे' के स्थान में 'यै' आदेश ।
२. सर्वेषाम् । सर्व +आम् । “सुरामि सर्वतः” (२।१।२९) से 'सु' आगम, "धुटि बहुत्वे त्वे" (२।१।१९) से एत्व तथा “नामिकरपरः प्रत्ययविकारागमस्थः सिः पं नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि" (२।४।४७) से 'स्' को मूर्धन्यादेश | ___ ३. वृक्षाणाम् । वृक्ष +आम् । “आमि च नुः" (२।१।७२) से 'नु' आगम, "अकारो दीर्घ घोषवति" (२।१।१४) से दीर्घ तथा "रवर्णेभ्यो नो णमनन्त्यः स्वरहयवकवर्गपवर्गान्तरोऽपि" (२।४|४८) से णत्व ।।८६।
८७. इदुदग्निः [२।१।८] [सूत्रार्थ] इकार तथा उकार की अग्निसंज्ञा होती है ।। ८७। [दु० वृ०]
इकार उकारश्चाग्निसंज्ञो भवति । अग्निम्, पटुम् । इदुदिति किमु ? सेनान्यम्, यवल्वम् । अग्निदेशाः "अग्नेरमोऽकारः" (२।१।५०) इत्येवमादयः ।। ८७ |