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नामचतुष्टयाध्याये प्रथमो धातुपादः
तु मते व्यस्थितवास्मरणाद् विकल्पो मन्तव्यः । तेन 'मातर्लक्ष्मि ! भजस्व मानू' इत्यादिकम् ' हे लक्ष्मीः स्या दरिद्राणाम्' इति च ॥ ८८
[समीक्षा]
कातन्त्रकार के अनुसार स्त्रीत्वबोधक ईकार - ऊकार वर्णों (प्रत्ययों) की तथा पाणिनि के अनुसार नित्य स्त्रीलिङ्ग वाले ईकारान्त - ऊकारान्त शब्दों की नदीसंज्ञा की गई है - "यू स्त्र्याख्यौ नदी” (अ० १ | ४ | ३ ) | एकत्र तदन्तविधि है और अन्यत्र उसका अभाव, परन्तु इस भेद से कोई उत्कर्ष - अपकर्ष नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यह भेद तो सूत्ररचनाशैली के अनुसार उपस्थित होता है। 'ईदूत्' तथा 'यू' पदों में 'ईदूत्' पद से सरलतया दीर्घ ईकार तथा दीर्घ ऊकार का बोध हो जाता है, परन्तु 'यू' पद से दीर्घ ईकार - ऊकार रूप अर्थ व्याख्यागम्य है T
इसे ईकारान्त- ऊकारान्त स्त्रीत्वाभिधायक शब्दों के साथ अंशतः भी साम्य न होने के कारण अन्वर्थ तो नहीं कहा जा सकता है, तथापि कुलविध्वंसिनी स्त्री के साथ कूलविध्वंसिनी नदी का साम्य स्थापित कर दोनों में तादात्म्य दिखाने का प्रयत्न विद्वानों ने अवश्य किया है । जैसे
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१. स्त्री नदी तदिदं सत्यं रसेनाकुलिता सती ।
यतो ध्वंसं विधत्ते सा कूलबकुलयोरपि ॥ ( वृत्तित्रय० १०९ ) । २. नयश्च नार्यश्च सदृक्प्रभावास्तुल्यानि कूलानि कुलानि तासाम् । तोयैश्च दोषैश्च निपातयन्ति सयो हि कूलानि कुलानि नार्यः ॥
३. जामातृसम्पत्तिमचिन्तयित्वा पित्रा तु दत्ता कुलद्वयं हन्ति मदेन नारी कूलद्वयं
जाता है -
( प० त० १ ।२२३) ।
स्वमनोऽभिलाषात् ।
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क्षुब्धजला नदीव ।।
( अविमारक ० १ । ३) ।
अन्वर्थता या अनुगतार्थता न होने के कारण पाणिनि पर आक्षेप किया
पाणिनेर्न नदी गङ्गा यमुना वा नदी स्थली ।
प्रभुः स्वातन्त्र्यमापन्नो यदिच्छति करोति तत् ॥ ( वृ००वा० ८० ) ।